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४०. ध्येयहीन यात्रा
संघ जब यात्रा के लिए जा रहा था, तब शांतिप्रिय भाई ने कहा: “कारणवशात् मैं इस संघ में आ नहीं सकूँगा । मेरी इस तुंबी को साथ ले जाइए और हरेक तीर्थस्थान में उसे स्नान करवा कर उसे पवित्र बनाइए ।" संघ जब यात्रा करके वापस आया, तब उन्होंने अपनी तुंबी वापस माँगी और यात्रियों को भोजन कराया । भोजन में उसी तुंबी का साग बनाया । तुंबी बिल्कुल कडुवी थी, उसका साग खाकर सबका मुँह कडुवा हो गया ।
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उस भाईने कहा, - "यह तुंबी अनेक नदियों में स्नान करके आई है, फिर भी मीठी क्यो नहीं हुई ?” हम भी कितनी यात्राएँ करते हैं लेकिन जब तक अपने अंतर को शुद्ध नहीं बनायेंगे तब तक ऐसी यात्रा का अर्थ ही क्या ? उद्यम में जीवन पूरा नहीं करना है, वरन् जीवन में आत्मा का पूर्ण विचार करना है ।
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