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४२. मन
मन अगर एक बार चंचल हो जाए तो कदम-कदम पर वह अस्थिर ही बना रहता है । कभी वह उपाश्रय में शादी का विचार करने बैठ जाता है और कभी ब्याह के मंडप में भी साधुता के बारे में सोचने लगता है । रथनेमि का मन राजुल के रूप से हार गया था, लेकिन अनुकूल निमित्त मिलते ही फिर से स्थिर हो गया | अंतर के वात्सल्य से बुरा आदमी भी सुधर जाता है ।
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प्रभु के रोम-रोम में यह भावना थी “सवि जीव करूँ शासनरसि" इसीलिए प्रभु ने चंडकौशिक, अर्जुनमाली और चंदनबाला का उद्धार कर दिया |
हमें मन को जोड़ना है, मन को मोड़ना है और मन को जीतना भी है । शीलगुणसूरि से रूपसुंदरी ( वनराज की माता) ने कहा था " मैंने कभी पानी का प्याला भी खुद नहीं भरा था, आज मैं लकड़ी के गठ्ठर उठाकर चल सकती हूँ ।" यही मन पर विजय है ।
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