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५१. मोहमदिरा मलिन सकल्प-विकल्प रूपी मदिरा के पात्र द्वारा मोहमदिरा का यथेच्छ पान करके उन्मत्त बने हुए जीव विविध प्रकार की कुचेष्टाएँ करते हुए चारों गतियों में भटकते रहते हैं। किंतु मलिन संकल्प-विकल्पों को छोड़कर तथा रागद्वेष को दूर करके, मोहके वशमें नहीं होते हुए जो सद्विवेक के योग से संयमित रहते हैं, वे ही चरित्र के द्वारा अन्य लोगों के लिए भी अनुकरणीय बन कर अंत में अक्षय और अविनाशी मोक्षपद को प्राप्त करते हैं।
जैसे शराब, शराबी, शराब की प्याली और शराब की दुकान- ये चारों परस्पर जुड़े हुए हैं । उसी प्रकार यह संसार मदिरालय जैसा है, जहाँ मोहरूपी शराब को विकल्प-विचारूपी प्याले में भर कर हम पीते ही रहते हैं । मेरा अच्छा, तेरा खराब इस भ्रम के साथ हम संसार में भटकते रहते हैं । शराब पीने के बाद मनुष्य जिस प्रकार विविध चेष्टाएँ करता है, उसी प्रकार भवरूपी नाटक में भी वह अनेक तरह के प्रपंच किया ही करता है । हँसते हुए बाँधे गये कर्म रोते-रोते भी छूटते नहीं हैं । मोहरूपी शराब आत्मा को दुर्गति में ले जाती है ।
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