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[ समराइच्चकहा
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मणं - सामिणि, अघेत्तव्वनामो देवस्त भिच्चावयवो ते पणमइ । तओ तीए 'सामिसालागुरूवे साए पावसु' त्ति भणिऊण पुलोइयं कुमारवयणं । भणियं च णेण सुंदरि, नत्थि एक्स्स संभमाणुरूवो पसायविसओ ति । तओ लज्जिओ पल्लिणाहो ।
एत्थंतरम्म ' अह किंनिमित्तं पुण एसा अणल्भा वुट्ठि' त्ति निरूविओ कुमारेण पायरूवो, जाव अच्चंतसुंदरी अदिट्ठपुव्वो य । तओ हरिसिएण पुच्छिओ पल्लिणाहो-भद्द, किनामधे ओ खु एसो पायवो । तेण भणियं - देव, न याणामि, अदिट्ठपुत्त्रो य एसो । तओ पुच्छियाओ तावसीओ। ताहि बि इमं चैव संलत्तं ति । कुमारेण भणियं - कहं तवोवणासन्नो वि न दिट्ठो भवहिं । तावसहि भणित्रं- कुमार, नाइबहुकालागया अम्हे, जम्मापुग्यो य एसो पएसो ति । कुमारेण चितियं नूणमेसो खु सो पियमेलओ; कहमन्ना एवमेयं हवइ । निरूवियाई कुसुमाई; दिट्ठाणि य घणपत्तसाहाविवरंतरेणं, जाव धवलाई जमलाणिय। दंसियाई पल्लिणाहस्स । तेण भणियं - देव, सो चेव एसो जहाइट्ठकुसुमो । कुमारेण भणियं - ता पूएमि एवं कप्पपायवं ति ।
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वस्त्रे प्रणमति । ततस्तया 'स्वामिशालानुरूपान् प्रसादान् प्राप्नुहि' इति भणित्वा प्रलोकितं कुमारवदनम् । भणितं च तेन - सुन्दरि ! नास्त्येतस्य सम्भ्रमानुरूपः प्रसादविषय इति । ततो लज्जित: पल्लीनाथः ।
अत्रान्तरे 'अथ किंनिमित्तं पुनरेषाऽनभ्रा वृष्टिः' इति निरूपितः कुमारेण पादरः, यावदत्यन्तसुन्दरोऽदृष्टपूर्वश्च । ततो हर्षितेन पृष्टः पल्लीनाथः - 'भद्र ! किनामधेयः खत्वेष पादपः । तेन भणितम् - देव ! न जानामि, अदृष्टपूर्वश्चैषः । ततः पृष्टाः तापस्यः । ताभिरपीदमेव संलपितमिति । कुमारेण भणितम् — कथं तपोवनासन्नोऽपि न दृष्टो भगवतीभिर्भणितम् - कुमार ! नातिबहुकालागता वयम्, जन्मापूर्वश्चैष प्रदेश इति । कुमारेण चिन्तितम् - नूनमेष खलु स प्रियमेलः, कथमन्यथैवमेतद् भवति । निरूपितानि कुसुमानि दृष्टानि च घनपत्रशाखाविवरान्तरेण यावद्भवलानि यमलानि च । दर्शितानि पल्लीनाथस्य । तेन भणितम् - देव ! स एवैष यथादिष्ट कुसुमः । कुमारेण भणितम् - : - ततः पूजयाम्येतं कल्पपादपमिति । समादिष्टो भिल्लनाथः - भद्र ! उपनय मे पूजोप
के अनुरूप महल प्राप्त करें - ऐसा कहकर कुमार के मुँह की ओर देखा । कुमार ने कहा - 'सुन्दरि ! प्रसन्नता का विषय घबराहट इसके अनुरूप नहीं है । अनन्तर भिल्लराज लज्जित हुआ ।
इसी बीच 'बिना बादल के यह वर्षा क्यों हो रही है' ऐसा कहकर कुमार ने वृक्ष देखा । वह वृक्ष अत्यन्त सुन्दर था और ऐसा वृक्ष पहिले कभी नहीं देखा था । अनन्तर हर्षित होकर ( कुमार ने भिल्लराज से पूछा- 'भद्र ! इस वृक्ष का क्या नाम है ?' उसने कहा - 'महाराज नहीं जानता हूँ, यह मैंने पहिले नहीं देखा ।' अनन्तर तपस्विनियों से पूछा । तापस्विनियों ने भी यही कहा । कुमार ने कहा -- तपोवन के समीप होने पर भी आप लोगों ने नहीं देखा ?' तापस्विनियों ने कहा - ' कुमार ! हम लोगों को आये हुए अभी अधिक समय नहीं हुआ है, यह प्रदेश जन्म से अपूर्व है ।' कुमार ने सोचा - निश्चित ही यह वह प्रियमेलक है, अन्यथा यह ऐसा कैसे होता ? फूलों को देखा, घने पत्तों वाली शाखा के छेद से देखा, (पुष्प) सफेद और जुड़वे हैं । भिल्लराज को (फूल) दिखलाये । भिल्लराज ने कहा- 'महाराज ! वही वह निर्दिष्ट फूल हैं ।' कुमार ने कहा 'तो इस कल्पवृक्ष की पूजा करता हूँ ।' मिल्लराज को आदेश दिया -भद्र ! मेरे लिए पूजा की सामग्री ले आओ, अचिन्त्य सामर्थ्य
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