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अठमो भवो ]
तुम्भेहि विभत्तीए सोऊणमिण सुसाहवयणं ति । एवं ति अब्भवमयं गएहि साहूहि चिष्णं च ॥ ८६७॥ तह चैत्र कंचि कालं अन्नोन्नवड्ढमाणसड्ढेहि । अह अन्नया य तुब्भं पोसहपडिम पवन्नाणं ॥ ८६८ ॥ तुंग मिसिहरे गयकुंभत्थलवियारणेक्करसो । धुपगकेसर सदो दरियमइदो समल्लीणो । तं दट्ठूणं तुमए तब्भीयं सिरिमई नि ऊण ॥ ८६ ॥ वामकरगोयरत्थं गहियं कोदण्डमुद्दामं ॥ ८७० ॥ भणियं च भीरु मा भायसु ति एयस्स मं समल्लीणा । एसो हु पसवराया ममेरकसरवासज्योति ॥ ८७ ॥ तो सिरिमईए भणियं एवं एवं ति कोऽत्थ संदेहो । कि त गुरुवणमेयं पामुक्कं होइ अम्हेहि ॥ ८७२ ॥
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युवाभ्यामपि भक्त्या श्रुत्वेदं सुसाधुववनमिति । एवमित्यभ्युपगतं गतेषु साधुषु चीर्णं च ॥ ८६७॥ तथैव कञ्चित् कालमन्योन्यवर्धमानश्रद्धाभ्याम् । अथान्यदा च युवयोः पोषधप्रतिमां प्रपन्नयोः ॥ ८६८ || तु विन्ध्यशिखरे गजकुम्भस्थल विदारणकरसः । धुतनिङ्गकेसरसटो दृप्तमृगेन्द्रः समालीनः ||८६६॥ तं दृष्ट्वा त्वया तद्भीतां श्रीमतीं दृष्ट्वा । वामकरगोचरस्थं गृहीतं कोदण्डमुद्दामम् ॥ ८७०॥ भणितं च भीरु ! मा बिभीहीति एतस्माद् मां समालीना । एष खलु मृगराजो ममैकशरपातसाध्य इति ॥ ८७१ ॥ ततः श्रीमत्या भणितं एवमेतदिति कोऽत्र सन्देहः । किन्तु गुरुवचनमेतत् प्रमुक्तं भवत्यावाभ्याम् ॥ ८७२ ||
करेगे'—कहकर स्वीकार किया । साधु चले गये । तुम दोनों ने ( धर्म का पालन किया। इस प्रकार एक दूसरे प्रति श्रद्धा बढ़ाते हुए तुमने कुछ समय बिताया । अनन्तर एक बार तुम दोनों ने प्रोषधोपवास प्रतिमा धारण की । तब ऊंचे विन्ध्याचल के शिखर पर हाथी के गण्डस्थल को चोरने में एक मात्र रसवाला, गर्दन के उज्ज्वल तथा पीले बालों वाला एक गर्वीला सिंह मिला। तुमने उसे देखकर और उससे भयभीत श्रीमती को देखकर बायें हाथ में (बायीं ओर) स्थित उत्वट धनुष को लिया और कहा- 'बरी डरपोक ! मत डरो, यह मुझे मिला है, यह सिंह मेरे एक बाण के द्वारा मारा जाकर साध्य है।' अनन्तर श्रीमती ने कहा- 'यह ठीक हैं, इसमें सन्देह क्या है ! किन्तु इससे हम लोग गुरु के वचनों को छोड़ देंगे, क्योंकि गुरुओं ने कहा था कि तुम दोनों के
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