Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 379
________________ नवमो भवो ] १२९ भोईओ, ममोवरि एयासिमणराओ ति चितियव्वं । कुंदलयाए भणियं-चितियमिणं ति.। सुणेउ कुमारो। जयप्पभोइमेव बंदिणा समुग्धोसिज्जमाणं सुयं कुमारनामयं रायधूयाहि, तयप्पभोइमेव गहियाओ पमोएग विसाएण य थणंति रायकन्नयाजम्मं निदंति य, अब्भसंति कलाकलावं चयंति य, कुणंति कुमारसंकहं न कुणंति य, झिज्जति देहेण, वड्ढंति विम्भमेहि, मुच्चंति लज्जाए, घेप्पंति उव्वेवएण । एयं च पेच्छिऊण 'किमयं ति विसण्णो राया। निउणसहियायणाओ य निसुओ एस वइयरो। तओ 'थाणे अहिलासो' त्ति हरिसनिन्भरेण पेसियाओ इहं। आगच्छमाणीओ य 'संपन्नमम्हाण समीहियभहियं' ति मयणगोयरादीयवियारसुहसमेयाओ पवड्ढमाणेण सुहाइसएण इह संपत्ताओ ति । चितियं च एयासिमणुरायमंतरेण । कुमारेण चितियं-हंत अत्थि एयासि ममोवरि अणुराओ, अणुरत्ता य पाणिणो आयई न गणेति, आयणति वयणं, गेण्हति निवियप्पं, पयति भावेण, संपाडेति किरियाए। या इमं एत्थ पत्तयालं। करेमि एयासि धम्मदेसणं ति। चितिऊण जंपियं कुमारण-भोईओ, किमेवमेयं, अत्थि तुम्हाण ममोवरि अणुराओ ति। मिति । कुमारेण भणितम्-भवत्यौ ! ममोपर्येतयोरनुराग इति चिन्तयितव्यम् । कुन्दलतया भणितम-चिन्तितमिदमिति । शृणोतु कुमारः । यत्प्रभृत्येव बन्दिना समुद्घोष्यमाणं श्रुतं कमारनामकं राजदुहितभ्यां तत्प्रभ त्येव गृही ते प्रमोदेन विषादेन च स्तुतो राजकन्यकाजन्म निन्दतश्च, अभ्यस्यतः कलाकलापं त्यजतश्च, कुरुतः कुमारसंकथां न करुतश्च, क्षीयेते देहेन, वर्धते विभ्रमैः मुच्येते लज्जय', गृह्य ते उद्वेगेन । एतच्च प्रेक्ष्य 'किमेतद्' इति विषण्णो राजा। निपूणसखीजनाच्च निश्रत एष व्यतिकरः । ततः 'स्थ नेऽभिलाषः' इति हर्षनिर्भरण प्रेषिते इह । आगच्छन्त्यौ च 'सम्पन्नमावयोः समीहिताभ्यधिकम्' इति मदनगोचर।दिक विकारसुख समेते प्रवर्धमानेन सुखातिशयेनेह सम्प्राप्ते इति । चिन्तितं चैतयोरनुरागस्यान्तरेण । कुमारेण चिन्तितम्-हन्त अस्त्येतयोर्ममोपर्यनुरागः, अनुरक्ताश्च प्राणिन आयति न गणयन्ति, आ.र्णयन्ति वचनम्, गृह्णन्ति निर्विकल्पम, प्रवर्तन्ते भावेन, सम्पादयन्ति क्रियया-तत इदमत्र प्राप्त कालम् । करोम्येतयोर्धर्मदेशनामिति । चिन्तयित्वा जल्पितं कुमारण-भवत्यौ ! किमेवमेतद्, अस्ति युवयोर्ममोपर्यनुराग इति । एतदाकर्ण्य दोनों का मेरे ऊपर अनुराग है ऐसा आप दोनों को सोचना चाहिए ।' कुन्दलता ने कहा-'यही सोचा है । कुमार सुनिए ! जब से, बन्दी के द्वारा घोषित किये जाते हुए कुमार के नाम को दोनों राजपुत्रियों ने सुना उसी समय से ही प्रमुदित होकर स्तुति की और विषादयुक्त होकर राजकन्या के रूप में जन्म लेने की निन्दा की। कलाओं का अभ्यास करना छोड़ दिया, (बस) कुमार की कथा करती रहीं, और कुछ नहीं। दोनों की देह क्षीण होती गयी. विभ्रम बढ़ता गया, लज्जा छूटती गयी और उद्वेग ने ग्रहण कर लिया। यह देखकर 'यह क्या !' इस प्रकार महाराज खिन्न हए । निपुण सखीजनों से यह घटना सुनी। अनन्तर 'उचित स्थान पर अभिलाषा की इस प्रकार हर्ष से भरकर इन दोनों को यहाँ भेज दिया। आकर हम दोनों का मनोरथ अत्यधिक रूप से पूर्ण हो गया' इस प्रकार काम के मार्ग आदि विकाररूप सुखों से युक्त होकर बड़े हुए सुख की अधिकता से दोनों यहां आयी हैं । इन दोनों के अनुराग के विषय में जान लिया।' कुमार ने सोचा-हाय ! इन दोनों का मेरे ऊपर अनुराग है और अनुरक्त प्राणी फल को नहीं मानते हैं, वचनों को सुनते हैं, निर्विकल्प को ग्रहण करते हैं, भाव से प्रवृत्त होते हैं, क्रिया से सम्पादन करते हैं । तो यहाँ समय आ गया है। इन दोनों को धर्मोपदेश देता हूँऐसा सोचकर कुमार ने कहा- 'क्या यह ठीक है कि आप दोनों का मेरे ऊपर अनुराग है ?' यह सुनकर हर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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