Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 387
________________ नवमो भवो] ८३७ कुमारो। देवि ! तुमं पि छड्डेहि सोयं, असोणिज्जो कुमारो, परिचत्तमणेण भवदुक्खं, अंगीकयं सासयसुहं । तुम पि धन्ना, जीए ईइसो सुओ समप्पन्नो। निबंधणं एस बयाण निवईए। ता परिच्चय विसायं, आलोचेहि कज्ज ति । राइणा भणियं-भयवइ, का तुम। देवयाए भणियंमहाराय, खग्गपहरणोवलक्खिया सुदरिसणा नाम देवया अहं, तुह पुत्तगणाणुराइणी इहं भवणे परि राणा चितियं अहो पत्तस्स गणा, जेण देवयाओवि अणरायंक ति। हरिसिया देवी। भणिय च णाए- महाराय, ईडसो कुमारस्स पहावी, जेण देवयाओ विएवं मंतेति । ता एहि, गच्छम्ह तस्स अंतियं, पेच्छामो धम्मपिडं, करेमो तयणुचिट्टियं, सव्वहा जुत्तमेयं ति । राइणा भणियं -एहि, एवं करेग्ह । तओ पणमिऊण देवयं विसुज्झमाणपरिणामाइं गयाइं कुमारसमीवं । मुणियं कुमारण, अन्मट्टियाइं सहरिसं, पणमियाई विणएण, निविट्ठाई कओ आसणपरिगहो। पमिऊण जंपियं कुमारेण- ताय, किमेयमणचियमिवाणचिट्टियं, अंबाए वि, कीस न सहाविओ अहं। राइणा भणियं- कमार, नेयमणुचियं । साहिओ देवयावतंतो। देवीए भणियं - कुमार, गुणपगरिसो तुम, इति । ततः कृतार्थः कुमारः । देवि ! त्वमपि मुञ्च शोकम, अशोचनीयः कमारः, परित्यक्त मनेन भवदुःखम्, अङ्गीकृतं शाश्वतसुखम् । त्वमपि धन्या, यस्या ईदृशः सुतः समुत्पन्नः । निबन्धनमेष बहूनां निवृतेः । ततः परित्यज विषादम्, आलोचय कार्यमिति । राज्ञा भणितम्-भगवति ! का त्वम् । देवतया भणितम्-महाराज ! खड्गप्रहरणोपलक्षिता सुदर्शना नाम देवताऽहम्, तव पत्रगुणानुरागिणीह भवने परिवसामि । राज्ञा चिन्तितम् अहो पुत्रस्य गुणाः. येन देवता अप्यनुरागं कुर्वन्ति । हर्षिता देवी । भणितं च तया--महाराज ! ईदृशः कुमारस्य प्रभावः, येन देवता अप्येवं मन्त्रयन्ति । तत एहि, गच्छावस्तस्यान्तिकम्, पश्यावो धर्मपिण्डम्, कुर्वस्तदनुष्ठितम्, सर्वथा युक्तमेतदिति । राज्ञा भणितम्-एहि, एवं कुर्वः । तत: प्रणम्य देवतां विशध्यमानपरिणामौ गती कुमारसमीपम् । ज्ञातं कुमारेण, अभ्युत्थिती सहर्षम्। प्रणतो विनयेन, निविष्टे आसने कृत आसनपरिग्रहः। प्रणम्य जल्पितं कुमारेण-तात ! किमेतदनुचितमिवानुष्ठितम, अम्बयाऽपि, कस्मान्न शब्दायितोऽहम् । राज्ञा भणितम्-कुमार ! नेदमनुचितम् । कथितो देवतावृत्तान्तः । देव्या हाथ देकर हटा दिया, उदारता अंगीकार कर ली, संसार का छेद कर दिया, मोक्ष से मिलन कर लिया। अत: कुमार कृतार्थ हुए । महारानी ! तुम भी विषाद छोड़ो, कुमार शोक के योग्य नहीं हैं । इन्होंने सांसारिक सुख का त्याग कर दिया, शाश्वत सुख अंगीकार कर लिया । तुम भी धन्य हो, जिसके ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ। यह बहुत से लोगों की मुक्ति का कारण है । अतः विषाद का त्याग करो, कार्य का विचार करो।' राजा ने कहा- 'भगवति, तुम कौन हो?' देवी ने कहा-'महाराज ! तलवार के प्रहार से पहचानी जानेवाली मैं सुदर्शना नामक देवी हूँ, तुम्हारे पुत्र के गुणों की अनुरागिनी हो यहाँ निवास करती हूँ। राजा ने सोचा-ओह पुत्र के गुण, जिससे देवता भी अनुराग करते हैं। महरानी (देवी) हर्षित हुई और उसने कहा- 'महाराज ! कुमार का ऐसा ही प्रभाव है, जिससे देव भी इस प्रकार सलाह देते हैं। तो आओ, कुमार के पास चलें, उसका धर्म-शरीर देखें, उसके धार्मिक कार्य को करें, यह सर्वथा उचित है ।' राजा ने कहा-'आओ, यही करें।' अनन्तर देवी को प्रणाम कर विशुद्ध होते हुए परिणामोंवाले वे दोनों कुमार के पास गये । कुमार को ज्ञात हुआ, हर्षपूर्वक उठा, दोनों को विनयपूर्वक प्रणाम किया, दोनों को आसन दिये, आसनों को ग्रहण किया गया। प्रणाम कर कुमार ने कहा-'पिता जी ! यह क्या अनुचित सा कार्य किया, माता जी ने मुझे क्यों नहीं बुला लिया ?' राजा ने कहा-'कुमार ! यह अनुचित नहीं है।' देवी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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