Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 395
________________ मवमो भवो ] ८४५ 1 चणाए -हा हा विवन्नो मे पिययमो, हा हय म्हि मंदभाइणी । अह केण उण एवं वबसियं कूरो खु सो पावो । कोस वा अहं न वावाइया, किं वा ममं जीवइ ( जीविएण) अवणीयं हिययबंधणं । नियत्ता इहकहा । सव्वा इसो एस संसारो ति । चितिऊण वासगेहभित्तिमूले खया दीहखड्डा, निहओ तहिं अज्जुणओ । एयमवलोइऊण अवक्कतो पुरंदरो, गओ अहिमयपएसं । कया य णाए तहिं पए से लहिया, कप्पिया तस्स बोंदी, पूएइ पइदिणं, करेइ बलिविहि, निहेइ नेहदीवं, आलिंगइ सिणेहमोहेण । उचिमणं च आगओ पुरंदरो। न दंसिओ तेण वियारो, न लक्खिओ नम्मयाए । अइक्कंता कइइ दिया । दिट्ठा पुरंदरेण यलहियातुस्सा । वितियं च णेण - अहो से मूढया, अहो अणराओ । अहवा अणहीयसत्थो ईइसो चेव इत्थियायणो होइ । कि ममेइणा । सुहाहारतुल्लाओ इत्थियाओ रिसिवयणं । ता करेउ एसा जं से पडिहायइ । पुठिंब व तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स अइक्कता दुवाल संवच्छरा । इओ य अईयचमदिणे पत्थुयाए पक्वाइयाए उवगप्पिए विविहदियभोयणे अभुत्तेसं दिसुं समासन्नाए भोयजवेलाए दिट्ठा पुरंदरेण तीए थलहियाए पिंडविहाणमुवगप्पयंती तया दीर्घनिद्राप्रसुप्तोऽर्जुनः । चिन्तितं च तया - हा हा विपन्नो मे प्रियतमः, हा हताऽस्मि मन्दभागिनी । अथ केन पुनरेवं व्यवसितम्, क्रूरः खलु स पापः । वस्माद् वाऽहं न व्यापादिता, किंवा मम जीवितेन,अपनीतं हृदयबन्धम् । निवृत्ता रतिसुखकथा । सर्वथेदृश एष संसार इति । चिन्तयित्वा वासगेहभित्तिमूले खाता दीर्घगर्ता, निखातस्तत्रार्जुनः । एवमवलोक्याप क्रान्तः पुरन्दरः, गतोऽभिमतप्रदेशम् । कृता च तया तत्र प्रदेशे स्थलिका, कल्पिता च तस्य बोन्दिः, पूजयति प्रतिदिनम्, करोति बलिविधिम् निदधाति स्नेहदीपम्, आलिङ्गति स्नेहमोहेन । उचितसमयेन चागतः पुरन्दरः, न दर्शितस्तेन विकारः, न लक्षितो नर्मदया । अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः । दृष्टः पुरन्दरेण स्थलकाशुश्रूषा | चिन्तितं च तेन - अहो तस्या मूढता, अहो अनुरागः । अथवाऽनधीतशास्त्र ईदृश एव स्त्रीजनो भवति । किं ममैतेन । सुधाहारतुल्या स्त्रिय इति ऋषिवचनम् । ततः करोत्वेषा, यत् तस्याः प्रतिभाति । पूर्वभिव तया सह विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्ता द्वादश संवत्सराः । इतश्चातीतपञ्चमदिने प्रस्तुतायां पक्षादिकायामुपकल्पिते विविधद्विज भोजनेऽभुक्तेषु द्विजेषु समासन्नायां जाग गयी। उसने दीर्घनिद्रा में सोये हुए अर्जुन को देखा और (उसने सोचा- हाय हाय, मेरा प्रियतम मर गया, हाय में मन्दभागिनी मारी गयी। किसने ऐसा किया होगा ? निश्चित रूप वह पापी क्रूर है। अथवा मुझे क्यों नहीं मारा ? मेरे जीने से क्या ( अर्थात् मेरा जीना व्यर्थ है ) । हृदय के बन्धन दूर हो गये । सम्भोग सुख की कथा निवृत्त हो गयी । यह संसार ऐसा ही है - ऐसा सोचकर शयनगृह की दीवार के नीचे बड़ा गड्ढा खोदा, उसमें अर्जुन को गाड़ दिया । यह देखकर पुरन्दर चला गया । इष्ट स्थान पर गया। उस स्थान पर उस स्त्री ने छोटा चबूतरा बनवाया और उसकी मूर्ति बनवायी, प्रतिदिन पूजा करने लगी, बलि की विधि करने लगी, स्नेह का दीप रखने लगी, स्नेह के मोह से आलिंगन करने लगी । उचित समय पर पुरन्दर आया । उसने विकार नहीं दिखलाया, नर्मदा ने लक्षित नहीं किया। कुछ दिन बीत गये । पुरन्दर ने चबूतरे की सेवा देखी। उसने सोचाओह उसकी (पत्नी की) मूढ़ता, ओह अनुराग ! अथवा शास्त्र नपढ़ी हुई स्त्रियाँ ऐसी ही होती हैं। मुझे इससे क्या । स्त्रियाँ अमृत के आहार के तुल्य होती हैं - ऐसा ऋषिवचन है, अतः उसे जो दिखाई दे वह करे। पहले जैसा विषयसुख अनुभव करते हुए बारह वर्ष बीत गये। इधर पिछले पाँचवें दिन पक्षादि के आने पर अनेक प्रकार के भोजन ब्राह्मणों के लिए बनाने तथा ब्राह्मणों के भोजन करने पर जब भोजन का समय आया तो पुरन्दर ने उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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