Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 432
________________ 1८२ [समराइच्चकहा भो भो देवाणप्पिया, अणाइम एस जीवो कंचणोक्लो व्व संगओ कम्ममलेण, तद्दोसओ पावेइ चित्तवियारे, उप्पज्जइ बहुजोणीसु, कयत्थिज्जइ जरामरणेहि, वेएइ असुहवेदणं, दूमिज्जए संजोयविओएहिं, वाहिज्जए मोहेण, सन्निवाइओ विय न याणइ हियाहियं, बहु मन्नए अपच्छं, परिहरइ हियाई, पावइ महावयाओ। ता एवं ववत्थिए परिच्चयह मूढयं, निरूवेह तत्तं, पूएह गुरुदेवए, देह विहिदाणं, उज्झेह किच्छाई, अगीकरेह मेत्ति, पवज्जह सोलं, अब्भसह तवजोए, भावेह भावणाओ, छड्डेह अग्गह, झाएह सुहज्झाणाई, अवणेह कम्ममलं ति । एवं, भो देवाणुप्पिया, अवणीए कम्ममलम्मि कल्लाणीहूए जीवे विसुद्धे एगंतेण न होंति केइ दुक्कयजणिया वियारा, होइ अच्चंतियं परमसोक्खं ति । ता जहासत्तीए करेह उज्जम उवइट्टगुणेसु । एयमायण्णिय संविगा परिसा। भणयं च णाएभयवं, एवमेयं ति । पडिवन्ना गणंतरं । पूजिऊण भयवंतं गओ देवराया। जपियं मणिचंदेण- भयवं, कि पूण तस्स पूरिसाहमस्स भयवओ वि उवसग्गकरणे निमित्तं । भयवया भणियं-सोम, सुण । गुरुओ अकुसलाणुबंधो, सो य एवं संजाओ त्ति । साहियं गणसेणग्गिभो देवानुप्रियाः! अनादिमानेष जीवः काञ्चनोपल इव संगत: कममलेन, तद्दोषतः प्राप्नोति चित्रविकारान, उत्पद्यते बहुयोनिष, कदर्थ्यते जरामरणाभ्याम् वेदयत्यशुभवेदनम् दूयते संयोगवियोगाभ्याम्, बाध्यते मोहेन, सान्निपातिक इव न जानाति हिताहितम्, बहु मन्यतेऽपथ्यम्, परिहरति हितानि, प्राप्नोति महापदः। तन एवं व्यवस्थिते परित्यजत मूढताम्, निरूपयत तत्त्वम्, पूजयत गुरुदेवते, दत्त विधिदानम्, उज्झत कृच्छाणि, अङ्गीकुरुत मैत्रीम्, प्रपद्यध्वं शीलम्, अभ्यस्यत तपोयोगान्, भावयत भावनाः, मुञ्चताग्रहम्, ध्यायत शुभध्यानानि, अपनयत कर्ममल मिति । एवं भो देवानुप्रिया ! अपनीते कर्ममले कल्याणीभूते जीवे विशुद्ध एकान्तेन न भवन्ति केऽपि दुष्कृतजनिता विकारा:, भवति आत्यन्तिकं परमसौख्यामिति । ततो यथा शक्ति कुरुतोद्यममुपदिष्टगुणेषु । एवमाकर्ण्य संविग्ना परिषद् । भणितं च तया भगवन् ! एवमेतदिति। प्रतिपन्ना गुणान्तरम् । पूजयित्वा भगवन्तं गतो देवराजः।। जल्पितं मुनिचन्द्रेण-भगवन् ! किं पुनस्तस्य पुरुषाधमस्य भगवतोऽप्युपसर्गकरणे निमित्तम। भगवता भणितम् -- सौम्य शृणु । गुरुकोऽकुशलानुबन्धः स च एवं संजात इति । कथितं गुणसेनाग्निहे देवानुप्रिय ! यह जीव अनादि है, स्वर्णयुक्त पत्थर के समान कर्ममल से युक्त है, कर्ममल के दोष से अनेक प्रकार के विकारों को प्राप्त करता है, अनेक योनियों में उत्पन्न होता है, जरा और मरण से तिरस्कृत होता है, अशुभ वेदना का अनुभव करता है, संयोग और वियोग से दुःखी होता है, मोह से बाध्य होता है, सन्निपात के गेगी के समान हित और अहित को नहीं जानता है, अपथ्य का आदर करता है, हितों का निवारण करता है, महान् आपति को प्राप्त करता है - ऐसा निर्धारित होने पर मढ़ता को छोड़ो, तत्त्व को देखो, गुरु और देवताओं की पूजा करो, विधिपूर्वक दान दो, कठिन कार्य छोड़ो, मैत्री अंगीकार करो, शील को प्राप्त करो. तप और योगों का अभ्यास करो, भावनाओं का चिन्तन करो, आग्रहों को छोड़ो, शुभ ध्यानों को ध्याओ, कर्ममलों को हटाओ। इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! कर्ममल के दूर हो जाने पर कल्याणीभूत विशुद्ध जीव में एकान्त से कोई बुरे कर्मजन्य विकार नहीं होते हैं, अविनाशी परमसुख होता है। अत: उपदिष्ट गुणों में यथाशक्ति उद्यम करो।' यह सुनकर सभा विरक्त हो गयी और उसने कहा---'भगवन् ! यह उचित है।' दूसरे गुणों को प्राप्त हुए भगवान् बी पूजा कर इन्द्र चला गया। मुनिचन्द्र ने कहा-'भगवन् ! अधम पुरुष का भगवान् के ऊपर उपसर्ग करने का क्या कारण था ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो-बहुत बड़ा अशुभ सम्बन्ध था, वह इस प्रकार (प्रकट) हुआ। इस तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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