Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 447
________________ नवमो भवो] ८६७ महिमा, पूजिया बोंदी, गहियाई पहाणंगाई, नीयाणि सुरलोयं, ठवियाणि विवित्तदेसे, साहियाणि देवाण, समागया देवा, दिवाणि तेहि, पूजियाणि भत्तीए, पणमियाणि सहरिसं, अविरहियं च तेसि पडिवत्तीए करेंति आयाणुग्गहं ति। वक्खायं जं भणियं समराइच्चगिरिसेणपाणे उ । एगस्स तओ मोक्खो ऽणंतो बीयस्स संसारो॥१०५०॥ गुरुवयणपंकयाओ सोऊण कहाणयाणुराएण। अनिउणमइणा वि दढं बालाइअणुग्गहटाए ॥१०५१॥ अविरहियनाणदंसणचरियगुणधरस्स विरइयं एयं । जिणदत्तायरियस्स उ सोसावयवेण चरियं ति ॥१०५२॥ जं विरइऊण पुण्णं महाणुभावचरियं मए पत्तं । तेण इहं भवविरहो होउ सया भवियलोयस्स ॥१०५३॥ मरुजं साधकं परमानन्दसुखस्य जन्मजरामरणविरहितं परमं सिद्धिपदमिति । कृता त्रिदशैमहिमा, पूजिता बोन्दिः, गृहीतानि प्रधानाङ्गानि, नीतानि सुरलोकम्, स्थापितानि विविक्तदेशे, कथितानि देवानाम्, समागता देवाः, दृष्टानि तैः, पूजितानि भक्त्या, प्रणतानि सहर्षम्, अविरहितं च तेषां प्रतिपत्त्या कुर्वन्त्यात्मानुग्रहमिति । व्याख्यातं यद् भणितं समरादित्य गिरिषेणप्राणौ तु । एकस्य ततो मोक्षोऽनन्तो द्वितीयस्य संसारः ॥१०५०॥ गुरुवदनपङ्कजात् श्रुत्वा कथानकानुरागेण । अनिपुणमविनाऽपि दृढं बालाद्यनुग्रहार्थम् ।। १०५१॥ अविरहितज्ञानदर्शनचारित्रगुणधरस्य विरचितमेतत् । जिनदत्ताचार्यस्य तु शिष्यावयवेन चरिनमिति ।।१०५२।। यद् विरचय्य पुण्यं महानुभावचरितं मया प्राप्तम् । तेनेह भवविरहो भवतु सदा भविकलोकस्य ।।१०५३॥ में उत्तम, कल्याणकारक, एकान्त से अचल, रोगरहित, परमानन्द, जन्म, जरा और मरण से रहित परमसिद्धपद.. (मोक्ष) को प्राप्त हुए । देवों ने उत्सव किया। शरीर की पूजा की। प्रधान अंगों को लिया. स्वर्ग में ले गये एकान्त स्थान पर रख दिया, देवों से कहा । देव आये, उन्होंने देखा, भक्ति से पूजा की, हर्षपूर्वक प्रणाम किया । उनके प्रति सतत श्रद्धा से अपना अनुग्रह किया। समरादित्य और गिरिसेन चाण्डाल के विषय में जो कहा गया उसकी व्याख्या हो चुकी। उनमें से एक का मोक्ष हुआ, दूसरे का संसार हुआ । गुरु के मुखकमल से सुनकर कथानक के प्रति अनुराग से, निपुणता से रहित बुद्धिवाला होने पर भी अल्पज्ञ जनों पर अत्यधिक अनुग्रह करने के लिए सतत ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप गुणों के धारी जिनदत्ताचार्य के शिष्यावयव ने इस चरित की रचना की। जिस महानुभाव के चरित की रचमाकर मैंने पुण्य प्राप्त किया उसी के द्वारा सदा भव्यजनों की संसार से मुक्ति हो ॥१०५०-१०५३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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