Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 434
________________ ८८४ [समराइच्चकहा आयससुतिक्खगोक्खुरुयकंटयाइण्णविसमपहमग्गा। असिसत्तिचक्ककप्पणिकुंततिसूलाइदुप्पेच्छा ।।१०३१॥ दुव्वण्णा दुग्गंधा दुरसा दुप्फासदुद्रुसद्दजया। घोरा नरयावासा जत्थुप्पज्जति नेरइया ॥१०३२॥ नेरइया उण काला कालोहासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णण । ते णं तत्थ निच्च भीया निच्चं तत्था निच्चं तसिया निच्चं उविग्गा निच्चं परमासुहसंबद्धा निरयभवं पच्चणुहवमाणा चिट्ठति । वेयणाओ उ इह विचित्तकम्मजणियाओ विचित्ता हवंति दारुणा उत्तिमंगच्छेया करवत्तदारणं सलवेहणाणि विसमजोहारोगा असंधिच्छेयणाणि तत्ततंबाइपाणं भक्खणं बज्जतुंडेहि अंगबलिकरणाणि दरियसावयभयं अत्थिउद्धरणाणि घोरनिक्खुडपवेसा पलितलोहित्थियालिंगणाणि सव्वओ सत्थजोगो जलंतसिलापडणाणि मोहपरायत्तय त्ति एवमाइयाओ महंतीओ वेयणाओ। निरुवमा य साहाविगी उण्हसीयवेयण त्ति। आयससुतीक्ष्णगोक्षुरककण्टकाकीर्णविषमपथमार्गाः । असिशक्तिचक्रकल्पनीकुन्तत्रिशूलादिदुष्पेक्षाः ॥१०३१॥ दुर्वर्णा दुर्गन्धा दूरसा दुःस्पर्शदुष्टशब्दयुताः। घोरा नरकावासा यत्रोत्पद्यन्ते नैरयिकाः ॥१०३२॥ नैरयिकाः पुनः कालाः कालावभासा गम्भीरलोमहर्षा भीमा उत्रासनकाः परमकृष्णा वर्णेन । ते तत्र नित्यं भोता नित्यं त्रस्ता नित्यं त्रासिता नित्यमुद्विग्ना नित्यं परमाशुभसम्बद्धा निरभयं प्रत्यनुभवन्तस्तिष्ठन्ति । वेदनास्तु इह विचित्रकर्मजनिता विचित्रा भवन्ति दारुणा उत्तमाङ्गच्छेदाः करपत्रदारणं शलवेधनानि विषम जिह्वारोगा असन्धिच्छेदनानि तातताम्रादिपानं भक्षणं वज्रतुण्डरङ्गबलिकरणानि दृप्तश्वापदभयमस्थ्युद्ध रणानि घोरनिष्कुट प्रवेशाः प्रदी तलोहस्त्र्यालिङ्गनानि सर्वतः शस्त्रयोगो ज्वलच्छिलापतनानि मोहपरायत्ततेति एवमादिका महत्यो वेदनाः । निरुपमा च स्वाभाविकी उष्णसितवेदनेति । गाय के खुर के समान पैने लोहे के नुकीले काँटों से व्याप्त विषम पथोंवाले वहाँ के मार्ग हैं । तलवार, शक्ति, चक्र, कैंची, भाले और त्रिशूल आदि से कठिनाईपूर्वक देखे जाने योग्य हैं। नरक का आवास बुरे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और दुष्ट शब्दों से युक्त तथा भयंकर है, जहाँ नारकी उत्पन्न होते हैं ॥१०३१-२०३२।। नारकी गहरे नीले रंग के, लोहे के समान चमकवाले, गहरे रोमकूपों वाले, भयंकर, डरावने और अत्यधिक काले वर्ण के होते हैं। वे वहाँ पर नित्य भयभीत, नित्य त्रस्त, नित्य त्रासित, नित्य उद्विग्न, नित्य अत्यधिक अशुभ से युक्त नरक के भय का अनुभव करते हए विद्यमान रहते हैं। यहाँ पर नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न अनेक प्रकार की भयंकर वेदनाएं होती हैं -सिर काटना, करौंत से चीरना शुल से वेधना. विषम जीभ के रोग, जोड़ों से रहित स्थानों को काटना, तपाए हुए तांबे आदि का पार करना, भक्षण करना, वज्र की नोकों से (काटकर) अंगों की बलि देना, गर्वीले हिंसक जन्तुओं का भय, हड्डियों का उखाड़ा जाना, भयंकर बगीचे में प्रवेश. तपाए हए लोहे के अस्त्रों से आलिंगन, सभी ओर से शस्त्रों का योग, जलती हई शिलाओं का गिरना मोह का पराधीनपना आदि ऐसी तीव्र वेदनाएँ होती हैं। गर्मी और सर्दी की वेदनाएँ अनुपम और स्वाभाविक रूप से होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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