Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ नवमो भवो ] ८८३ सम्माइकहानयं । एवं च सोऊण संविग्गो राया देवीओ वेलंधरो सामंता य। चितियं च णेहिं - अहो न किचिएयं सव्वहा दारुणं अन्नाणं ति । वेलंधरेण भणियं - भयवं, कोइसो इमस्स परिणामो भविस्सs | भयवया भणियं - अनंतरं निरयगमणं तिव्बाओ वेदणाओ, परंपरेण उ अणतो संसारो ति । नम्मयाए भणियं - भयवं; केरिसा उण नरया हवंति, केरिसा नारया कीइसीओ वा तत्थ वेयणाओ हवंति । भयवया भणिय- धम्मसीले, सुण । तेणं नरया अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खरुपसंठाणसंठिया निच्चधयारतमसा ववगयगहचं दसूरनक्खत्तजो इस पहा मेयवसारुहिरपूयपडलचिक्खल्ललित्ताणुले वणतला असुई विस्सा परमदुरभिगंधा काउअगणिवण्णाभा कक्खडकासा दुरहियासा असुभा नरया । अवि य थिमिथितखारोदया चलचलें तहिमसक्करा घरघरतवसकद्दमा फिणिफिणेंत पूयाउला घोग्घएंतरुहिरोज्झरा सिमिसिमित कमिवित्थरा जलजलेंतउवकाउला कणकणेंतअसिपायवा पुफुएंतभीमोरगा सुंसुएंतखरमारुया धगधगेत दित्ताणला करकरेंत जंताउला । अवि यशर्मादिकथानकम् । एतच्च श्रुत्वा संविग्नो राजा देव्यो वेलन्धरः सामान्ताश्च । चिन्तितं च तैः -- अहो न किञ्चिदेतत् सर्वथा दारुणमज्ञानमिति । वेलन्धरेण भणितम् - भगवन् ! कीदृशोऽस्य परिणामो भविष्यति । भगवता भणितम् - अनन्तरं निरयगमनं तीव्र वेदनाः, परम्परेण त्वनन्तः संसार इति । नर्मदा भणितम् - भगवन् ! कीदृशाः पुनर्नरका भवन्ति, कीदृशा नारकाः कीदृश्यो वा तत्र वेदना भवन्ति । भगवता भणितम् - धर्मशीले ! शृणु । ते नरका अन्तो वृत्ता बहिश्चतुरस्रा अधःक्षुरप्रसंस्थानसंस्थिता नित्यान्धकारतमसो व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिः प्रभा मेदवसारुधिरपूयपटल कर्दमानुलेपनलिप्ततला अशुचयो विस्राः परमदुरभिगन्धाः कापोताग्निवर्णाभाः वर्कश स्पर्शा दुरध्यासा ( दुःसहाः) अशुभा नरकाः । अपि च - थिमिथिमत्क्षारोदकाः चलचलद्द्द्दिमशर्कराः घरघरवसा कर्दमाः फिणिफणत्पूयाकुला घोग्घद्रुधिरनिर्झराः सिमिसिमत्कृमिविस्तरा जलजलदुल्काकुलाः कणकणदसिपादपाः पुप्फुयद्भीमोरगाः सुसुयत्खरमारुता धगधगद्दीप्तानलाः, करकरद्यन्त्राकुलाः। अपि च गुणसेन से अग्निशर्मा सम्बन्धी कथानक कह दिया। यह सुनकर राजा, महारानियाँ, वेलन्धर और सामन्त विरक्त हो गये । उन्होंने विचार किया - अहो ! यह और कुछ नहीं, सर्वथा दारुण अज्ञान है । वेलन्धर ने कहा- भगवन् ! इसका परिणाम कैसा होगा ?' भगवान् ने कहा- 'अनन्तर ( गिरिषेण का ) नरक में गमन होगा, तीव्र वेदना होगी, परम्परा से अनन्त संसार होगा । नर्मदा ने कहा- 'भगवन् ! नरक कैसे होते हैं ? नारकी कैसे होते हैं ? वहाँ पर वेदना कैसी होती है ?" भगवान् ने कहा - 'धर्मशीले ! सुनो-वे नरक अन्त में गोल, बाहर चौकोर, नीचे छुरे के आकार के रूप में स्थित हैं । नित्य गहन अन्धकार वहाँ रहता है; ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्रों की ज्योति से वे रहित होते हैं, मज्जा, चर्वी, खून तथा पीप के समूह की कीचड़ से उनके तल लिप्त रहते हैं तथा वे अपवित्र मुर्दा जलने की अथवा कच्चे मांस की गन्ध से युक्त, अत्यधिक दुर्गन्धवाले, धूसर अग्नि के वर्ग के समान आभावाले, कठोर स्पर्शं वाले, दुःसह और अशुभ होते हैं। घिम घिम करते हुए लवण जलों, चल चल करते हुए हिमकणों, घर-घर करती हुई चर्बी की कीचड़, फिन्- फिण् करती हुई पीप, घद्-घद् करते हुए खून के झरनों, सिम-सिम करते हुए कीड़ों के समूह, जल-जल करती हुए उल्काओं, कण-कण करते हुए असिवृक्षों, फुफकारते हुए भयंकर सर्पों, धग्धग् करके जलती हुई अग्नियों और कर्र-करं करते हुए यन्त्रों से (वे नरक) व्याप्त हैं । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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