Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 431
________________ नवमो भवो ८८१ एत्थंतरम्मि भयवओ केवलमहिमानिमित्तं महया देववंद्रण एरावणारूढो वज्जतेणं दिव्व. तूरेणं गायतेहिं किन्नरेहि नच्चंतेणं अच्छरालोएणं महापमोयसंगओ आगओ देवराया। सोहियं धरणिपीढं, संपाडिया समया, सित्तं गंधोदएण, कओ कुसुमोवयारो, निविट्ठ कणयपउमं, आणंदिया देवा, हरिसियाओ देवीओ। उवविट्ठो भयवं । वंदिओ देवराइणा । भणियं च--- कयत्थो सि भयवं, ववगओ ते मोहो, नियत्ता संकिलेसा, विणिज्जिओ कम्मसत्त, पाविया केवलसिरी, उवगियं भवियाण, तोडिया भववल्ली, पावियं सिवपयं ति । एवं संथुओ भावसारं। एयमायण्णिय 'अहो भगवओ सिद्ध महिलसियं' ति आणंदिओ मुणिचंदो देवीओ सामंता य। वंदिओ यहिं पुणो पुणो भत्तिबहुमाणसारं । एत्थंतरम्मि पगाइया किन्नरा, पणच्चियाओ अच्छराओ, पवत्ता केवलमहिमा, जाओ महापमोओ, समागया जणवया। एत्थंतरम्मि 'अहो महाणुभावया एयस्स, असोहणं च मए कयं' ति चितिऊण अविखविय कुसलपक्खबीयं अवगओ गिरिसेणपाणो। एस समओ त्ति पत्थुया धम्मदेसणा । भणियं च भयवया -- अत्रान्तरे भगवतः केवल महिमानिमित्तं महता देववन्द्रेण ऐरावणारूढो वाद्यमानेन दिव्यतूर्येण गायद्भिः किन्नरैर्न त्यताऽप्स रोलोकेन महाप्रमोदसङ्गतो देवराजः । शोधितं धरणीपीठम्, सम्पादिता समता, सिक्तं गन्धोदकेन, कृतः कुसुमोपचारः. निविष्टं कनकपद्मम्, आनन्दिता देवाः, हर्षिता देव्यः । उपविष्टो भगवान । वन्दितो देवराजेन, भणितं च कृतार्थोऽसि भगवन !. व्यपगतस्ते मोहः, निवृत्ताः संक्लेशाः, विनिर्जितः कर्मशत्रुः, प्राप्ता केवल श्रीः, उपकृतं भविकानाम्, त्रोटिता भववल्ली, प्राप्तं शिवपदमिति । एवं संस्तुतो भावसारम् । एतदाकर्ण्य 'अहो भगवतः सिद्ध म भिलषितम्' इत्यानन्दितो मुनिचन्द्रो देव्यः सामन्ताश्च । वन्दितश्च तैः पुनः पुनर्भक्तिबहुमानसारम् । अनान्तरे प्रगीताः किन्नराः, प्रनतिताः अप्सरसः, प्रवृत्ता केवल महिमा, जातो महाप्रमोदः, समागता जनवजाः। अत्रान्तरे 'अहो महानुभावता एतस्य, अशोभन च मया कृतम्' इति चिन्तयित्वा आक्षिप्य कुशल पक्षबीजमपगतो गिरिषणप्राणः । एष समय इति प्रस्तता धर्मदेशना। भणितं च भगवता-भो इसी बीच भगवान् के केवलज्ञान महोत्सव के लिए बड़े देवसमूह के साथ, ऐरावत हाथी पर सवार हो अत्यधिक आनन्द से युक्त होकर इन्द्र आया। उस समय दिव्य बाजे बज रहे थे, किन्नर गा रहे थे (तथा) अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। पृथ्वी का पृष्ठ भाग शोधा, भूमि एक-सी कर दी, गन्धोदक से सींचा, फूलों को सजाया, स्वर्णकमल स्थापित किये, देव आनन्दित हुए, देवियाँ हर्षित हुई। भगवान विराजमान हुए। इन्द्र ने वन्दना की और कहा-'भगवन् ! आप कृतार्थ हैं, आपका मोह नष्ट हो गया, दुःख दूर हो गये, कर्मरूपी शत्रु को जीत लिया, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त कर ली, भव्यों का उपकार किया, संसाररूपी लता तोड दी, मोक्ष पद प्राप्त किया। इस प्रकार भावनाओं के साररूप स्तवन किया । यह सुनकर 'ओह भगवान् की अभिलाषा सिद्ध हो गई'-इस प्रकार मुनिचन्द्र, महारानियाँ और सामन्त आनन्दित हए। उन्होंने बार-बार भक्ति और आदर के साथ वन्दना की । इसी बीच किन्नरों ने गान किया, अप्सराओं ने नृत्य किया, केवलज्ञान महोत्सव हुआ बहुत आनन्द हुआ, जनसमूह उमड़ पड़ा। तभी 'ओह, इसकी महानुाभावता, मैंने बुरा किया'- ऐसा सोचकर कुशल (शुभ) पक्ष का बीज फेंककर गिरिषेण चाण्डाल निकल गया। यह समय है इस प्रकार धर्मोपदेश प्रस्तुत किया और भगवान ने कहा – 'हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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