Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 429
________________ नवमो भवो] ८७६ 'पहूयं कालं हिंडाविओ' त्ति अच्चंतकुविएण रोद्दज्झाणवत्तिणा चितियं च णेण-एस एत्थ पत्थावो, न पुण एयारिसो संजायइ; ता वावाएमि एयं दुरायारं, पूरेमि अत्तणो मणोरहे; तहा य वावाएमि, जहा महतं दुक्खमणुहवइ पावो ति। तो सिग्धमेव कुओइ आणिऊण वेढिओ जरचीरेहि, सितो अयसितेल्लेणं, लाइओ अग्गी। भयवया पवढमाणजोयाइसएण न वेइयं सव्वमेयं । पवत्ते य दाहे जाओ माणसंकमो । चितियं च ण -हंत किमयं ति । अहो दारुणो भावो । पडिवन्नो कस्सइ अहं अणत्थहेउभावं । अहवा अलमिमिणा चितिएणं । सामाइयं एत्थ पवरं। नियत्तिया चिता, ठिओ विसुद्धजमाणे. परिणओ जोओ. जायं महासामाइयं, पवत्तमउव्वकरणं. उल्लसिया खवगसेढी. विभियं जीववीरियं, निहया कम्मसत्ती, वढिओ झाणाणलो, दड्ढं मोहिंधणं, पावियाओ लद्धीओ, जायं जोगमाहप्पं; विसोहिओ अप्पा, ठाविओ परमजोए, खवियं घाइकम्म, उप्पाडियं केवलनाणं ति । एत्थंतरम्मि भयवओ पहावेण अहासन्नखेत्तवत्ती चलियासणो समाणो आहोइऊण ओहिणा घेतूण कुसुमनियरं जइणयरीए गईए अणेगदेवयापरियरिओ महया पमोएण आगओ वेलंधरो। कालं हिण्डितः' इत्यत्यन्तकुपितन रौद्रध्यानवतिना चिन्तितं च तेन-एषोऽत्र प्रस्तावो (अवसरः) न पुनरेतादृशः संजायते, ततो व्यापादयाम्येतं दुराचारम्, पूरयाम्यात्मनो मनोरथान्, तथा च व्यापादयामि यथा मह दुःखमनुभवति पाप इति । ततः शीघ्रमेव कुतश्चिदानीय वेष्टितो जरच्चीवरैः, सिक्तोऽतसोतेलेन, लगितोऽग्निः । भगवता प्रवर्धमानयोगातिशयेन न वेदितं सर्वमेतद् । प्रवृत्ते च दाहे जातो ध्यानसंक्रमः । चिन्तितं च तेन-हन्त किमेतदिति । अहो दारुणो भावः। प्रतिपन्नः कस्यचिदमनर्थहेतुभावम् । अथवा अलमनेन चिन्तितेन । सामायिकमत्र प्रवरम् । निवतिता चिन्ता, स्थितो विशुद्धध्याने, परिणतो योगः, जातं महासामायिकम्, प्रवृत्तमपूर्वकरणम्, उल्लसिता क्षपकश्रेणिः, विजम्भितं जीववीर्यम, निहता कर्मशक्तिः, वधितो ध्यानानल:, दग्धं मोहेन्धनम्, प्राप्ता लब्धयः. जातं योगमाहात्म्यम्, विशोधित आत्मा, स्थापितः परमयोगे, क्षपितं घातिकर्म, उत्पादितं केवलज्ञानमिति । अत्रान्तरे भगवतः प्रभावेण यथासन्नक्षेत्रवर्ती चलितासनः सन् आभोग्यावधिना गहीत्वा कुसुमनिकरं जवनतर्या गत्याउने कदेवता परिवृतो महता प्रमोदेनागतो वेलन्धरः । प्रणतो भगवान्, घूमा' इस प्रकार अत्यन्त कुपित होकर रौद्र ध्यान से युक्त हो उसने सोचा- यह यहाँ अवसर है । बाद में ऐसा नहीं मिल सकता अतः इस दुराचारी को मारता हूँ, अपना मनोरथ पूर्ण करता हूँ, उस प्रकार मारूंगा जिसमें पापी बहत अधिक दुःख का अनुभव करे। अत: शीघ्र ही कहीं से पुराने कपडे लाकर लपेट दिये. अलसी का तेल सींचा, आग लगा दी। बढ़ते हए योग की अतिशयता वाले भगवान ने यह सब नहीं जाना । अग्नि जलने पर ध्यान में परिवर्तन हआ। उन्होंने सोचा --खेद है, यह क्या ? ओह भाव दारुण है। कोई मेरे अनर्थ के कारण में लग गया अथवा ऐसा विचार करने से बस अर्थात यह सोचना व्यर्थ है । यहाँ पर सामायिक उत्कृष्ट है । चिन्ता दूर हुई, विशुद्ध ध्यान में स्थित हुए. योग परिणत हुआ, महासामायिक उत्पन्न हुआ, अपूर्वक रण प्रवृत्त हुआ, क्षाकगि मुशोभित हुई, आ म शक्ति बढ़ी, कर्म की शक्ति मारी गयी, ध्यानरूपी अग्नि बढ़ी, लब्धियां प्राप्त की, योग का माहात्म्य उत्पन्न हुआ, आत्मा की शुद्धि की, परमयोग में स्थापित किया, घातिया कर्मों का नाश किया, केवलज्ञान उत्पन्न किया। इसी बीच भगवान् के प्रभाव से समीप स्थानवी आसन हिलने पर अवधिज्ञान से जानकर, फलों का समूह लेकर अत्यधिक तेज गति से अनेक देवताओं के साथ अत्यधिक प्रसन्न होकर वेलन्धर आया। भगवान को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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