Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 436
________________ ८८६ [समराइच्चकहा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लागगपवरमल्लाणुलेवणवरा भासुरबोंदो पलंबवणमालाधरा दिव्येणं वणेणं दिवेणं गंधेगं दिवेणं फासेगं दिब्वेणं संघपणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इउढीए दिव्वाए जुईए दिवाए पहाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चोए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पहासेमाणा महयाऽहयनट्टगीयवाइयतंतोतलतालतुडियघणमुइंगपडपडह(प)वाइयरवेण दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणा विहरति । अवि य, सुरही पवणो विमलं नहंगणं निच्चकालमज्जोओ। अविरहियपंकयाई जलाइ सइ पुफिया वप्पा(च्छा) ॥१०३३॥ अब्दायावन्वीवंसकसतालयविचिकंचीणं(?) । वरमुरवाणं च रवो नेव य गेव य गेयस्स वोच्छित्तो ॥१०३४॥ महानुभावा महासौख्या हारविराजितवक्षसः कटकनुटितस्तम्भितभजा अङ्गदकुण्डलमष्टगण्डतलकर्णपीठधारिणो विचित्रहस्ताभरणा विचित्रमालामौलयः कल्याणकप्रवरवस्त्रपरिहिताः कल्याणकप्रवरमाल्यानुलेपनधरा भासुरशरीराः प्रलम्बवनमालाधरा दिव्येन वर्णन दिव्येन गन्धेन दिव्येन स्पर्शण दिव्येन संहननेन दिव्येन संस्थानेन दिव्यया ऋद्धया दिव्यया द्युत्या दिव्यया प्रभया दिव्यया कायया दिव्यया अचिषा दिव्येन तेजसा दिव्यया लेश्यया दश दिश उद्घोतयन्तः प्रभासयन्तो महताहतनाटयगीतवादिवतन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुपटह(प्र)वादितरवेण दिव्यान् भोग्यभोगान् भुजाना विरहन्ति । अपि च सुरभिः पवनो विमलं नभोङ्गणं नित्यकालमुद्द्योतः । अविरहितपङ्कजानि जलानि सदा पुष्पिता वृक्षाः ॥१०३३।। अव्याहतविविधवंशकांस्यतालकविपञ्चिकाञ्चीनाम् (?) । वरमुरजानां च रवो नैव च गेयस्य व्युच्छित्तिः ।।१०३४॥ प्रभाव और महान् सुखवाले होते हैं तथा हार से उनका वक्षःस्थल शोभित होता है । मुड़े हुए कड़ों से भजाएँ दढ रहती हैं । बाजूबन्द, कुण्डल, चिकने गाल, कान और ठोड़ी को धारण करनेवाले, हाथ के विचित्र आभूषणों से युक्त, विचित्र मालाओं और मुकुटोंवाले, सुन्दर और उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए, सुन्दर उत्तम माला और लेपन धारण किये हुए, देदीप्यमान शरीरवाले, बड़ी फूलमाला धारण किये हुए, दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य स्पर्श, दिव्य शारारिक दृढ़ता (संहनन), दिव्य आकार (संस्थान), दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य कान्ति, दिव्य किरण, दिव्य तेज, दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित करते हुए, प्रभायमान करते हुए बड़े जोर से उच्चारित नाट्य, गीत, वादित्र, तन्त्री, ताली, मंजीरे (अथवा संगीत में नियत मात्राओं पर तालो बजाना), घंटा, मृदंग, तथा निपुणता से बजाए हुए ढोलों की ध्वनि से युक्त हो दिव्य भोगों को भोगते हए विहार करते हैं। कहा भी है (वे देव) सुगन्धित वायु, स्वच्छ आकाशरूपी आँगन, नित्य समय रहनेवाला उद्योत, कमलों से रहित न होनेवाले जल, सदा खिले हुए फूलों से सदैव युक्त रहते हैं, विशेष रूप से न बजाए गये अनेक प्रकार की बाँसुरी, मँजीरे, वीणा (तथा) श्रेष्ठ की ध्वनि से गीत निरन्तर चलते रहते हैं। इन्द्रियों के इष्ट विषय शब्द, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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