Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 409
________________ नवमी भवो ] अओभाउरि, तत्थ विय वंदननिमित्तं साहुसावगसमेओ रिसभदेवसंगयं महाविभूईए सक्कावयारं नाम चेइयं । दिट्ठ 'च तेण तहियं वियडं उज्जाणमज्झभार्याम्म । आहरणं नयरीए आययणं भवणनाहस्स ॥ १००७॥ सिंखकुमुपगोखीरहारसरयन्भकुंदचं दनिहं । कप्पतरुनियर परिययमुप्पेहडधय वडाइणं ॥ १००८ ॥ मरयमरमुहु (म्म) भडमऊहलसिरोरुतोरणसणाहं । उत्तगंसुरलोए तियसाहिववरविमाणं व ॥ १०० ॥ वित्थिष्णमरगय सिलासंचयसंजणिय वियडदढपीढं । रयणसयलोहविरइयनिम्मलमणिकोट्टिमाभोयं ॥ १०१०॥ दिलसंतसालि हंजियमणिमयथम्भालिनिमियसोहिल्लं । कच्छंतरोरुमणहरपरिलंबियमोत्तिओऊलं ॥ १०११॥ पुरोम्, तत्रापि च वन्दननिमित्तं साधु श्रावकसमेत ऋषभदेवसंगत महाविभूत्या शक्रावतारं नाम चैत्यम् । दृष्ट च तेन तत्र विकट मुद्यान मध्यभागे । आभरणं नगर्या आयतनं भुवननाथस्य ॥ १००७॥ सितशङ्खकुमुदगोक्षो रहा रश रदभ्रकुन्दचन्द्रनिभम् । कल्पतरुनिक रपरिगत मुद्भटध्वजपटाकीर्णम् ॥१००८ ।। मरकतमयरम्योद्भटमयूखल सदुरुतोरणसनाथम् । उत्तुङ्गं सुरलोके त्रिदशाधिपव रविमानमिव ॥ १०० ॥ विस्तीर्णमरकतशिलासञ्चयसनितविकटदृढपीठम् । रत्नसकलौघविरचितनिर्मलमणिकुट्टिमाभोगम् ॥ १०१०॥ विलसच्छालभञ्जिकामणिमयस्तम्भालि निर्मितशोभावद् । कक्षान्तरोरुमनोहर परिलम्बितमौक्तिकावचूलम् । १०११ ।। Jain Education International ८५६ अयोध्यापुरी पहुँचे । वहाँ भी साधु और श्रावकों के साथ ऋषभदेव की प्रतिमा से युक्त बड़ी विभूतिवाले शक्रावतार नामक चैत्य पर गये । उन्होंने (समरादित्य ने वहाँ विशाल उद्यान के बीच मुनिपति ऋषभनाथ की प्रतिमा से विभूषित नगरी के आभरणस्वरूप त्रिलोकीनाथ का आयतन (मन्दिर) देखा । उसका रंग सफेद शंख, कुमुद, गाय के दूध, हार, शरत्कालीन मेघ, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान था । वह कल्पवृक्षों से घिरा हुआ था, उत्तुंग ध्वजावस्त्रों से व्याप्त था, मरकतमणि से युक्त रमणीय प्रचण्ड किरणों से शोभायमान विस्तीर्ण तोरणों से युक्त था, ऊँचाई के कारण वह स्वर्गलोक के दूसरे विमान के समान मालूम पड़ रहा था । मरकतमणि की बड़ी-बड़ी शिलाओं के समूह से उसकी मजबूत विकट पीठिका बनाई गयी थी । समस्त रत्नों के समूह से उसका निर्मल मणिनिर्मित फर्श बनाया गया था । मणिमय खम्भों के समूह से निर्मित शोभावाली शालभञ्जिकाएँ ( पुतलियाँ) वहीं शोभित हो रही थीं। कक्षाओं के अन्दर विस्तीर्ण, मनोहर, मोतियों के चौरीनुमा गुच्छे लटक रहे थे । For Private & Personal Use Only www.jaingelibrary.org

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