Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 418
________________ [समराइच्चकहा भयवया भणियं-सोम, सुण । जहा चिगिच्छासेवणाओ सहसरूवा आरोग्गया, तहा संजमाणटाणाओ एगंसुहसरूवो मोक्खो ति। न यावि परमत्थओ दुक्ख सेवणारूवं संजमाणुटुाणं परमसुहपरिणामजोगओ विसुद्धलेसाणुभावओ य । एवं च समए पढिज्जइ। अवि य __ न वि अस्थि रायरायस्स तं सुहं नेय देवरायस्स। जं सुहमिहेव साहो हुस्स) लोयव्वावाररहियस्स ॥१०२४॥ अन्नं च । जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा, एए णं कस्स तेउलेसं वीइवयंति । मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराण देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, एवं दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, तिमासपरियाए समणे निग्गंथे असुर(रिद)कुमाराणं देवाणं तेउलेसं वीइवयइ, चउमासपरियाए समणे निग्गंथे गहगणनवखत्तताराख्वाणं जोइसियाणं तेउलेसं वीइवयइ, पंचमासपरियाए समणे निग्गंथे चंदिमसूरियाणं जोइसिदाणं जोइसरातीणं तेउलेसं वीइवयइ, छम्मासपरियाए समणे निग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं तेओलेसं भणितम-सौम्य ! शृण । यथा चिकित्सासेवनात् सुखस्वरूपारोगता, तथा संयमानुष्ठानाद एकान्तसुखस्वरूपो मोक्ष इति । न चापि परमार्थतो दुःखसेवनारूपं संयमानुष्ठानं परमशुभपरिणामयोगतो विशुद्धलेश्यानुभावतश्च । एवं च समये पठ्यते । अपि च, नाप्यस्ति राजराजस्य तत् सुखं नैव देवराजस्य । यत् सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ।।१०२४।। __ अन्यच्च, ये इमेऽद्यतया श्रमणा निर्ग्रन्थाः, एते कस्य तेजोलेश्या व्य तवजन्ति । मासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो वानमन्तराणां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । एवं द्विमास यिः श्रमणो निर्ग्रन्थोऽसरेन्द्रजितानां भवनवासिनां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । त्रिमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्योऽसुरेन्द्रकुमाराणां देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति । चतुर्मासपर्याय: श्रमणो निर्ग्रन्थो ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां ज्योतिष्कानां तेजोलेश्यां व्यतिवति । पञ्चमासपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थश्चन्द्रसूर्याणां ज्योतिष्केन्द्राणां ज्योतिष्कराजानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति। षण्मासपर्यायः श्रमणो निर्धारित होने पर एकान्त सुखस्वरूपवाला मोक्ष दुःखसेवनरूप संयम का पालन करने से कैसे होता है ? भगवान ने कहा---'सौम्य ! सनो। जैसे चिकित्सा का सेवन करने सखस्वरूप वाली अरोगता होती है उसी प्रकार संयम का पालन करने से एकान्त सुखस्वरूप मोक्ष होता है । संयम का पालन करना परमार्थ से दुःख का सेवन करने रूप नहीं है। क्योंकि परम शभपरिणामों का योग रहता है और विशद्ध लेश्या का प्रभाव रहता है। आगम में इस प्रकार पढ़ा जाता है। कहा भी है. इस संसार के व्यापार से रहित साधु का जो सुख है वह सुख न तो राजाओं के चक्रवर्ती का है, न देवराज इन्द्र का है।।१०२४॥ दूसरी बात, आज जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ हैं ये किसकी तेजोलेश्या का उल्लंघन करते हैं ? एक मास की अवस्था वाला (जिसे श्रमण हुए एक मास हुआ है) श्रमण निर्ग्रन्थ वानमन्तर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है । इसी प्रकार जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए दो माह हुए हैं वह असुरेन्द्र को छोड़कर भवनवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है । जिसे श्रमण निर्ग्रन्थ हुए तीन माह हो गया है वह असुरेन्द्र कुमार देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है। जिसे श्रमण निग्रन्थ हुए चार माह हो गये हैं वह ग्रहगण, नक्षत्र, तारारूप ज्योतिषी देवों की तेजोलेश्या का उल्लंघन करता है । जिसे श्रमण निम्रन्थ हुए पांच माह हो गये हैं वह चन्द्रमा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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