Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 426
________________ ८७६ [समराइच्चकहा अकुसलाणुबंधिकम्मजता संसाराहिणंदिणो खुद्दसता दोग्गइगामिणो कल्लाणपरंमुहा भायणं अणत्याणं, तेसि खलु अकुसलपवत्तीए पावभरसंपूरणत्यं इट्टत्थसपत्ताइ संजायए, विवरीयाणं तु भणियभावविवरीयभावओ सव्वविवज्जओ ति। असोयचंदेण भणियं-भयवं, एवमेयं। अहो मे अवणीओ मोहो भयवया। एत्थंतरम्मि पुवागएणव पणमिऊण भयवंतं भणियं तिलोयणेण-भयवं अभयदाणोबट्ठभदाणाण ओघओ कि पहाण परं ति । भयवया भणियं - सोम, सुण । अभयदाणं । रायपत्तिचोरग्गहणविमोक्खणयाए एत्थ दिह्रतो । अत्थि इहेव बम्भउरं नयरं, कुसद्धओ राया, कमलुया महादेवी, ताराबलिप्पमहाओ अन्नदेवीओ। अन्नया य राया वायायणोविट्ठो समं कमलुयापमुहाहि चहि अग्गभहिसीहिं अक्खजूयविणोएण चिट्ठइ, जाव अणेयकसाघायदूमियदेहो बद्धो पयंडरज्जूए दंडवासिएण आणीओ तक्करो। भणियं च ण - देव, कयमणेण परदव्वावहरणं ति। राइणा भणियं-वावाएहि एयं । पयट्टाविओ दंडवासिएण वज्झभूमि। तओ पाणवल्लहयाए अवलोइऊण दोणवयणेण दिसाओ कुशलानुबन्धिकर्मयुक्ताः संसाराभिनन्दिनः क्षुद्रसत्त्वा दुर्गतिगामिनः कल्याणपराङ मुखा भाजनमनानाम्, तेषां खल्व कुशलप्रवृत्त्या पापभरसम्पूरणार्थमिष्टार्थसम्प्राप्त्यादि संजायते, विपरीतानां तु भणितभावविपरीत भावतः सर्वविपर्यय इति । अशोकचन्द्रेण भणितम-भगवन ! एवमेतद। अहो मेऽपनीतो मोहो भगवता। ___ अत्रान्तरे पूर्वागतेनैव प्रणम्य भगवन्तं भणितं त्रिलोचनेन-भगवन् ! अभयदानोपष्टम्भदानयोरोघतः किं प्रधानतरमिति । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु। अभयदानम्। राजपत्नो चोरग्रहणविमोक्षणतयाऽत्र दृष्टान्तः । अस्तीहैव ब्रह्मपुर नगरम्, कुशध्वजो राजा, कमलुका महादेवी, तारावलाप्रमुखा अन्यदेव्यः। अन्यदा च राजा वातायतनोपविष्ट: समं कमलुकाप्रमुखाभिश्चतसभिरग्रमहिषोभिरक्षद्यूतविनोदेन तिष्ठति, यावदनेककशाघातदूनदेहो बद्धः प्रचण्डरज्ज्वादण्डपाशिकेनानीतस्तस्करः । भणितं च तेन-देव ! कृतमनेन परद्रव्यापहरणमिति । राज्ञा भणितम् -~-व्यापादयतम् । प्रतितो दण्डपाशिकेन वध्यभूमिम् । ततः प्राणवल्लभतयाऽवलोक्य दीनवदनेन दिश करनेवाले, दुर्गति में जानेवाले, कल्याण से पराङ्मुख और अनर्थों के पात्र क्षुद्र प्राणी हैं, निश्चित रूप से उन्हें पाप के समूह की पूर्ति के लिए इष्ट पदार्थों की प्राप्ति आदि हो जाती है और जो विपरीत होते हैं उनके कथित भावों से विपरीत भाव होने के कारण सब विपरीत होता है।' अशोकचन्द्र ने कहा-'भगवन् ! यह ऐसा ही है। ओह ! मेरा मोह भगवान ने दूर कर दिया।' इसी बीच मानो पहले से आये हुए त्रिलोचन ने प्रणाम कर भगवान् से कहा-'भगवन् ! अभयदान और वस्तुदान में सम्पूर्ण रूप से कौन अधिक प्रधान है ?' भगवान् ने कहा --'सौम्य ! अभयदान प्रधान है। राजपत्नी के चोरी में पकड़ने और छोड़ने का यहाँ दृष्टान्त है-यहीं ब्रह्मपुर नगर है। वहाँ कुशध्वज राजा और कमलुका महारानी थी, तारावती प्रमुख अन्य महारानियाँ थीं। एक बार राजा खिड़ की में कमलुका प्रमुख चार पटरानियों के साथ द्यूतकीड़ा करता हुआ बैठा था । तभी अनेक कोड़ों के मारने से दुःखी शरीरवाले, बड़ी रस्सी से बंधे एक चोर को कोतवाल लाया और उसने (कोतवाल ने) कहा-महाराज ! इसने दूसरे के धन का अपहरण किया है। राजा ने कहा - इसे मार डालो। कोतवाल उसे बाह्मभूमि में ले गया। अनन्तर प्राण प्यारे होने के कारण दीनमुख हो दिशाओं की ओर देखकर वह चिल्लाया-ओह ! पहले पहल चोरी करनेवाला, मनोरथ को प्राप्त न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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