Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 420
________________ [समराइच्चकहा ८७० सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउवज्जगाणं तु। तह सुहमसंपराया छविहबंधा मुणेयव्वा ॥१०२५।। मोहाउयवज्जाणं पगडीणं ते उ बंधगा भणिया। उवसंतखोणमोहा केवलिणो एगविहबंधा ॥१०२६॥ ते उण दुसमयठिइयस्स बंधया न उण संपरायस्स । सेलेसोपडिवन्ना अबंधया होंति विन्नेया॥१०२७॥ अपमत्तसंजयाणं बंधठिई होइ अट्ठ उ मुहुत्ता। उक्कोसेण जहन्ना भिन्नमुहुत्तं तु विन्नेया ॥१०२८॥ जे वि पमत्ताऽणाउट्टियाए बंधति तेसि बंधठिई। संवच्छराइं अट्ठ उ उक्कोसियरा मुहुत्तंतो॥१०२६॥ सम्मट्ठिीणं पि हु गठिं न कयाइ वोलए बंधो। मिच्छट्ठिीणं पुण उक्कोसो सुत्तभणिओ उ ॥१०३०॥ सप्तविधबन्धका भवन्ति प्राणिन आयुर्वर्जानां तु । तथा सूक्ष्मसम्परायाः षड्विधबन्धा ज्ञातव्याः ॥१०२५॥ मोहायुर्वर्जानां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः। उपशान्तक्षीणमोहाः केवलिन एकविधबन्धाः ।।१०२६॥ ते पुनद्विसमयस्थितिकस्य बन्धका न पुनः सम्परायस्य । शंलेशोप्रतिपन्ना अबन्धका भवन्ति विज्ञ याः ।।।।१०२७।। अप्रमत्तसंयतानां बन्धस्थितिर्भवत्यष्ट तु मुहूर्ताः । उत्कर्षेण जघन्या भिन्नमुहूर्त तु विज्ञया ॥१०२८॥ येऽपि प्रमत्ता अनाकुट्टया बध्नन्ति तेषां बन्धस्थितिः। संवत्सराण्यष्ट तु उत्कृष्टा इतरा मुहूर्तान्तः ॥१०२६॥ सम्यग्दृष्टोनामपि खलु ग्रन्थि न कदाचिद् व्यतिक्रामति बन्धः । मिथ्यादृष्टिनां पुनरुत्कृष्ट: सूत्रभणितस्तु ॥१०३०॥ वाले कर्म को बाँधते हैं ?' भगवान् ने कहा-'सौम्य ! सुनो आयु को छोड़े हुए जीव के बन्ध सात होते हैं तथा सूक्ष्मसाम्परायों के छह प्रकार का बन्ध जानना चाहिए । आयकर्म से रहित मोह प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है-उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगकेवली का एक प्रकार का बन्ध होता है । पुन: वे बन्ध दो समय की स्थितिवाले होते हैं, किन्तु साम्पराय के ऐसा नहीं होता है। शील के स्वामीपने को प्राप्त हुए अबन्धक होते हैं--ऐसा जानना चाहिए। अप्रमत्तसंयतों का बन्ध और स्थिति उत्कृष्ट रूप से आठ मुहूर्त की होती है । जघन्य स्थिति भिन्न मुहुर्त जानना चाहिए । जो प्रमत्त गुणस्थान में बिना काटे हुए बन्ध करते हैं उनकी बन्धन की स्थिति उत्कृष्ट आठ वर्ष और जघन्य मुहूर्त भर की होती है । सम्यग्दृष्टियों की भी ग्रन्थि कदाचित् बन्ध का अतिक्रमण नहीं करती है। मिथ्यादृष्टियों की उत्कृष्ट स्थिति सूत्र में कही गयी है ॥१०२५-१०३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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