Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 421
________________ मवमो भवो ] चित्तंगएण भणियं भयवं, एवमेयं; अवणीओ अम्हाण मोहो; भयवया अणुग्गिहीओ दर्द इच्छामि अर्सा । एत्यंतर म्म समागया कालवेला, अवगया नरिदाई, कयं भयवया उचियकरणिज्जं । बिइयदिय य तम्सि चेव चेइए अवद्वियस्स भयवओ समागओ अग्गिभूई नाम माहणो । वंदिऊण भयवंतमाइदेवं समराइच्चधायगं च उवविट्ठो तयंतिए । सविनयं जंपियमणेण - भयवं, साहेहि मज्झ देवयाविसेसं तदुवासणाविह उवासणाफलं च । भयवया भणियं - सोम, सुण । देवयाविसेसो ताव सो वीयरागो वज्जिओ दोसेण परमनाणी पूजिओ सुरासुरेहि परमत्यदेसगो हिओ सव्वजीवाण अचितमापो रहिओ जम्ममरणेहिं कयकिच्चो परमप्प त्ति । तदुवासणाविही उण जहासत्तीए निरीहेण चित्तेण अच्च त भावसारं उचिएणं कमेणं रहियमइयारेहिं तदुवएससारं अणुट्ठाणं दाणस्स पालणं विरईए आसेवणं तवस्स भावणं भावणाणं ति । उवासणाफलं पुण सुंदरं देवत्तं महाविमाणाइं अच्छरसाओ दिव्वा काम भोया सुकुल पच्चाइयाई सुंदरं रूवं विसिट्ठा भोया वियवखणत्तं धम्मपडिवत्ती परमपय ८७१ चित्राङ्गदेन भणितम् - भगवन् ! एवमेतद्, अपनीतोऽस्माकं मोहः, मगवताऽनुगृहीतो दृढमिच्छाम्यनुशास्तिम् । अत्रान्तरे समागता कालवेला, अपगता नरेन्द्रादयः, कृतं भगवतोचितकरणीयम् । द्वितीयदिवसे च तस्मिन्नेव चैत्येऽवस्थितस्य भगवतः समागतोऽग्निभूतिर्नाम ब्राह्मणः । वन्दित्वा भगवन्तमादिदेवं समरादित्यवाचकं चोपविष्टस्तदन्तिके । सविनयं जल्पितमनेन - भगवन् ! कथय मम देवताविशेषं तदुपासनाविधिमुपासनाफलं च । भगवता भणितम् - सौम्य ! शृणु । देवताविशेषस्तावत स वीतरागो वर्जितो दोषेण परमज्ञानी पूजितः सुरासुरैः परमार्थदेशको हितः सर्वजीवानामचिन्त्यमाहात्म्यो रहितो जन्ममरणाभ्यां कृतकृत्यः परमात्मेति । तदुपासनाविधिः पुनर्यथाशक्ति निरीहेण चित्तेनात्यन्तभावसारमुचितेन क्रमेण रहितमतिचारैस्तदुपदेशसा रमनुष्ठानं दानस्य पालनं विरत्या आसेवनं तपसो भावनं भावनानामिति । उपासनाफलं पुनः सुन्दरं देवत्वं महानिमानानि अप्सरसो दिव्याः कामभोगाः सुकुलप्रत्यागतादिः सुन्दरं रूपं विशिष्टा भोगा विचक्षणत्वं धर्मप्रति चित्रांगद ने कहा- 'भगवन् ! यह ऐसा ही है, हमारा मोह दूर हो गया, भगवान् से अनुगृहीत होकर आदेश की इच्छा करता हूँ ।' इसी बीच समय हो गया, राजा आदि चले गये। भगवान् ने योग्य कार्यों को किया। दूसरे दिन जब भगवान् उसी चैत्य में ठहरे हुए थे तब अग्निभूति नाम का ब्राह्मण आया । भगवान् आदिदेव और समरादित्य वाचक को नमस्कार कर उनके समीप बैठ गया । विनयपूर्वक इसने कहा- 'भगवन् ! मुझसे देवताविशेष और उसकी उपासना की विधि तथा उपासना का फल कहिए ।' भगवान ने कहा 'सौम्य ! सुनो। जो वीतरागी, दोषरहित, परमज्ञानी, सुर और असुरों से पूजित, परमार्थ का उपदेश देनेवाला, समस्त जीवों का हितकारी, अचिन्त्य माहात्म्यवाला, जन्म और मरण से रहित, कृतकृत्य और परमात्मा हो वह 'देवता विशेष' है । यथाशक्ति निरभिलाष चित्त से अत्यन्त भावरूप सारवाला होकर उचित क्रम से, अतिचारों से रहित, उनके साररूप उपदेशों का पालन करना, दान देना, विरति का पालन करना, तप का सेवन करना, भावनाओं का चिन्तन करना, उस देवताविशेष की उपासना विधि है । उपासना का फल स्वर्ग में सुन्दर देवपना, देवांगनाओं के साथ दिव्य काम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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