Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 411
________________ नवमो भवो] ८६१ भयवं । एत्थंतरम्मि मुणियसमराइच्चागमणो समं परियणेण पमोयविलसंतलोयणो भयवओ वंदणनिमितं अओज्झानयरिसामी समागओ पसन्नचंदो। कया भयवओ पूया। तओ वंदिऊण चेइए समराइच्चवायगं च उवविट्ठो तस्स पुरओ । झणियं च ण-भयवं, एस एत्थ नाहिनंदणो पढमधम्मचक्कवट्टी सुणीयइ । ता कि परेण नासि धम्मो; अह आसि, कहमेस पढमधम्मचक्कवटि त्ति। भयवया भणियं सोम्म, सुण । इस भरहवासे इमीए ओसप्पिणीए एस भयवं पढमधम्मचक्कवट्टी। न उण परेण नासि धम्मो, कि तु अणाइमंता तित्थयरा, तप्परूविओ य धम्मो अणाइमं चेव। राइणा भणियंभयवं, किमेसा ओसप्पिणी सम्बत्थ हवइ, भयवया भणियं-- सोम्म, नहि; अवि य पंचसु भरहेसु पंचसु य एरवएसु, विदेहेसु पुण अवढिओ कालो। तेसु सव्वकालमेव हवंति घम्मनागया तित्थयरा चक्कवट्टिणो वासुदेवा बलदेवा य, तहा सिझंति पाणिणो। भरहेरवएसु अणवढिओ कालो; न सव्वकालमेव एयमेवं हवइ, किंतु पवत्तए कालचक्कं। तं पुण पमाणओ वीससागरोवमकोडाकोडिमाणं । एत्थ ओसप्पिणी उस्सप्पिणी य । एक्केवकाए छन्विहा कालपरूवणा । तं जहा । सुसमसुसमा सुसमा सुसम तस्तैर्भगवान । अत्रान्तरे ज्ञातसमरादित्यागमनः समं परिजनेन प्रमोदविलसद्लोचनो भगवतो वन्दननिमित्तमयोध्यानगरीस्वामी समागतः प्रसन्नचन्द्रः। कृता भगवतः पजा। ततो वन्दित्वा चैत्यानि समरादित्यवाचकं चोपविष्टस्तस्य पुरतः । भणितं च तेन-भगवन् ! एषोऽत्र नाभिनन्दनः प्रथमधर्मचक्रवर्ती भ्रूयते. ततः किं परेण नासाद् धर्मः, अथासीद्, कथमेष प्रथमधर्मचक्रवर्तीति । भगवता भणितम् -- सौभ्य ! शृणु । इह भरतवर्षेऽस्यामवसपिण्यामेष भगवान प्रथमधर्मचक्रवर्ती। न पुनः परेण नासोद् धर्मः, किन्तु अनादिमन्तस्नीर्थकपाः, तत्प्ररूपितश्च धमोऽनादिमानेव । राज्ञा भणितम-भगवन ! किमेषाऽवसर्पिणी सर्वत्र भवति । भगवता भणितम्-सौम्य ! नहि; अपि च पञ्चसु भरतेषु पञ्चसु चैरवतेषु, विदेहेषु पुनरवस्थितः कालः । तेषु सर्वकालमेव भवन्ति धर्मनायकास्तीर्थक राश्चक्रवतिनो वासुदेवा बलदेवाश्च, तथा सिध्यन्ति प्राणिनः । भरतरवतेषु अनवस्थितः कालः, न सर्वकालमेव एतदेवं भवति, किन्तु प्रवर्तते कालचक्रम् । तत् पुनः प्रमाणतो विशतिसागरोपमकोटाकोटी मानम् । अत्राव पिणी उपिणा च। एकैकस्याः षड विधा काल की वन्दना की। इसी बीच समरादित्य का आगमन जानकर आनन्द से विकसित नेत्रोंवाला अयोध्या नगरी का स्वामी प्रसन्नचन्द्र परिजनों के साथ भगवान की वन्दना के लिए आया । भगवान् की पूजा की । अनन्तर चैत्यों तथा समरादित्य वाचक की वन्दना कर उनके सामने बैठ गया और उसने कहा-'भगवन् ! यह यहाँ नाभि के पुत्र ऋषभदेव प्रथम धर्मचक्रवर्ती सुने जाते हैं,उनसे पहले या धर्म नहीं था? यदि था तो ये प्रथम धर्मचक्रवर्ती कैसे हुए ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो। इस भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी के यह प्रथम धर्मचक्रवर्ती हैं । ऐसी बात नहीं है कि उनसे पहले धर्म नहीं था, किन्तु तीर्थंकर अनादि हैं और उनके द्वारा प्ररूपित धर्म भी अनादि है।' राजा ने कहा-'भगवन् ! क्या यह अवसर्पिणी सब जगह होती है ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! नहीं, अपित पाँच भरत, पाँच ऐरावत और विदेहों में काल अवस्थित है। उनमें सब कालों में धर्मनायक तीर्थंकर, चक्रवती, वासुदेव, बलदेव होते हैं और प्राणी मोक्ष जाते हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्रों में काल अनवस्थित है, सब समयों में यह इस प्रकार नहीं रहता है, किन्तु कालचक्र प्रवर्तित होता है। उसका प्रमाण बीस कोड़ाकोड़ि सागर है । यहाँ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी होती है। प्रत्येक की छह प्रकार की कालप्ररूपणा होती है। वह यह है-सुखम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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