Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 414
________________ ८६४ [ समराइच्चकहा माणाणि य आउयपमाणाणि हवंति जाव सुसमदुस्समारंभकालो । सुसमदुस्समारंभकाले उण एगपलिओवमाउया, पमाणेण एगं गव्वयं हवइ । उवभोपपरि मोगा वि जणा(काला)णुभावेण ऊणाणभावा। न खल एयाण वि विसिट्टा धम्माधम्मसन्ना हवइ। खीणपायाए य इमीए ओयरइ एत्थ भयवं पढमपुहइवई सयलकलासिप्पदेसओ वंदणिज्जो सुरासुराण जयदगुरूतेलोक्कबंधू अन्नाणतिमिरनासणो भवियकुमयायरससी पढमधम्मचक्कट्टी आदितित्थगरो ति। तओ पवत्तए वारेज्जाइकिरिया दानसीलतवभावणामओय विसिट्टधम्मो। खीयमाणाणि य आउयपमाणाणि हवंति जाव दुस्समसुसमारंभकालो । दुस्समसमारंभकाले उण चउरासीपुटवलक्खाउया, पमाणेण पंचधणुसयाणि । उवभोगपरिभोगा उण जणा(कालाणहावेण ऊणाणुहावा। अइक्कमइ कप्पतरुकप्पो, अवि य पवरोसहिमाइएहितो हवंति ऊणाणहावा य हाइ। य किसिद्धा धम्माधम्मसन्ना जओ इमीए हवंति तित्थयरा चक्कवधिणो वासदेवा बलदेवा य। खीयमाणाणि य आउप्पमाणाणि हात जाव दुस्समारंभकालो। दुस्समारंभकाले य पायं वास समाउया, पमाणेण सत्तहत्था। उवभोग चायु प्रमाणानि भवन्ति यावद् सुषमदु.षमा रम्भकालः । सुपमदुःषमारम्भकाले पुन रेकपल्योपमायुष्काः, प्रमाणेन एकं गव्यूत भवति । उपभोगपरिभोगा अपि जना(कालानुभावेन ऊनानुभावाः। न खल्वेतेषामपि विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा भवति । क्षोणप्रायायां चास्पामवत रत्यत्र भगवान प्रथम पृथिवीपतिः सकलकलाशिल्पदेशको वन्दनीयः सुरासुराणां जगद्गुरुस्त्रलोक्यबन्धुरज्ञानतिमिरनाशनो भविककुमुदाकरशशो प्रथमधर्मचक्रवर्ती आदितीर्थकर इति । ततः प्रवर्तते विवाहादिक्रिया दानशीलतपोभावनामयश्च विशिष्टधर्मः । क्षीयमाणानि चार प्रमाणानि भवन्ति यावद् दुःषमसुषमारम्भकाल: । दुःषमसुषमारम्भकाले पुनश्चतुरशीतिपूर्वलक्षायुष्काः, प्रमाणेन पञ्च धनु:शतानि । उपभोगपरिभोगाः पुनर्जना (काला)नुभावेन ऊनानुभावाः । अतिक्रामति कल्पतरुकल्प', अपि च प्रवरोषध्यादिकेभ्यो भवन्ति ऊनानुभावाश्च । भवति च विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा, यतोऽस्यां भवन्ति तीर्थक राश्चक्रवर्तिनो वासुदेवा बलदेवाश्च । क्षोयमाणानि चायु:प्रमाणानि भवन्ति यावद् दुःषमारम्भकाल: । दुःषमारम्भकाले च प्रायो वर्षशतायुष्काः प्रमाणेन प्रभाव वाले होते हैं। इनमें भी धर्माधर्म संज्ञा का भेद नहीं रहता है। सुखम-दुखमा काल के आरम्भ में लोग एक पल्य की आयुवाले होते हैं, लम्बाई एक गव्य ति होती है । लोगों का उपभोग-परिभोग भी काल के प्रभाव से कम-कम होता जाता है। इनमें भी धर्माधर्म संज्ञा का भेद नहीं रहता है । इस काल के क्षीणप्राय हाने पर भगवान आदि तीर्थंकर का अवतार हआ। वे प्रयन राजा थे, समस्त कला और शिलयों का उपदेश देनेवाले थे, सूर और असुरों के द्वारा वन्दनीय थे, संसार के गुरु थे, तोनों लोकों के बन्धु थे, अज्ञानान्धकार का नाश करनेवाले थे, भव्धजनों रूपी कुमुदों के समूह के लिए चन्द्रमा थे और प्रथम चक्रवर्ती थे। उनमे विवाहादि त्रिया, दान, शील, तप और भावनामय विशिष्ट धर्म का प्रवर्तन हुआ । सुखम-दुःखमा काल के लोगों की आयु में दुःखम-सुखमा काल के आरम्भ तक ह्रास होता रहता है । दुःखम-सुखमा काल के आरम्भ में अस्सी लाख पूर्व की आयु होती है लम्बाई पाँच सौ धनुष होती है, लोगों का उपभोग-परिभोग भी काल के प्रभाव से कम-कम होता जाता है । कल्पवृक्षों के होने के नियम का अतिक्रमण होता है और श्रेष्ठ औषधियाँ आदि होती हैं जो कि न्यून-न्यून प्रभाव वाली होती हैं । धर्म और अधर्म संज्ञा का भेद होता है; क्योंकि इसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव और बलदेव होते हैं । दुःखमा काल के आरम्भ तक आयु का ह्रास होता रहता है। दु:खमा काल के आरम्भ में प्राय: सौवर्ष की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450