Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ नवमो भवो] परिभोगा य ओसहिमाइएहितो हवंति ऊणाणुहावा य। हवइ तहा य हीयमाणा विसिट्ठा धम्माधम्मसन्ना, जओ इमीए वि अणुवत्तए तित्थं, पहवंति य मिच्छत्तकोहमाणमायालोहा । खीयमाणाणि य आउपमाणाणि हवंति जाव दुस्समदुस्समारंभकालो । दुस्समदुस्समारंभकाले वीसवरिसाउया पाएण दुहत्थपमाणण पज्जंते य सोलसरिसाउया पमाणेणं एगहत्था । उवभोगपरिभोगा उ अमणोरमेहि मंसमाईहितो हवंति ऊणाणुहावा य, धणियं न हवइ य विसिट्ठा धम्माधम्मसन्ना। एवमेसा ओसपिणी। उस्सप्पिणी वि पच्छाणपु-वीए एवंविहा चेव हवइ । एवमेयं पवत्तए कालचक्कं । एवं च इह भरहवासे इमीए ओसप्पिणीए एस भयवं पढमधम्मचक्कवट्टी, न उण परेण नासि धम्मो त्ति। राइणा भणियं -भयवं एवमेयं, अवणीओ अम्हाण मोहो; भयवया अणुग्गिहीओ अहं इच्छामि अणुसदि। __ एत्थंतरम्मि समागओ तत्थ अच्चंतमझत्थो संगओ बुद्धीए परलोयभीरू परिणओ वोवत्थाए इदसम्माहिहाणो माहणो त्ति । वंदिऊण भयवंतं गुरुं च उवविट्ठो गुरुसमीवे । भणियं च ण-भयवं, स तहस्ताः। उपभोगपरिभोगाश्च ओषध्यादिकेभ्यो भवन्ति ऊनानुभावाश्च । भवति तथा च हीयमाना विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा, यतोऽस्यामप्यनुवर्तते तीर्थम, प्रभवन्ति च मिथ्यात्वक्रोधमानमायालोभाः। श्रीयमाणानि चायुःप्रमाणानि भवन्ति यावद् दुःष मदुःषमारम्भकालः। दुःषमदुःषमारम्भकाले विंशतिवर्षायुष्काः प्रायण द्विहस्तप्रमाणेन पर्यन्ते च षोडशवर्षायुष्का: प्रमाणनंकहस्ताः। उपभोगपरिभोगास्तु अमनोरमैौसादिभिर्भवन्ति ऊनानुभावाश्च, गाढ न भवति च विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा । एत्र मेषाऽवसपिणा। उत्सपिण्यपि पश्चानुपूर्वा एवविधंव भवति । एवमेतत् प्रवर्तते कालचक्रम् । एवं चेह भरत वर्षऽस्यामवसपिण्यामेष भगवान् प्रथमधर्मचक्रवर्ती, न पुनः परेण नासीद् धर्म इति । राज्ञा भणितम् -भगवन् ! एवमेतद्, अपनीतोऽस्माकं मोहः, भगवताऽनुगृहीतोऽहमिच्छाम्यनुशास्तिम् । ___ अत्रान्तरे सभागतस्तत्रात्यन्तमध्यस्थः संगतो बुद्धया परलोक भीरुः परिणतो क्योऽवस्थया इन्द्रशर्माभिधानो ब्राह्मण इति। वन्दित्वा भगवन्तं गुरुं चोपविष्टो गुरुसमीपे । भणितं च तेन आय होती है, लम्बाई सात हाथ होती है। उपभोग और परिभोग औषधि आदि से होते हैं और प्रभाव न्यूनन्यून होते जाते हैं तथा धर्माधर्म सता हीयमान (निरन्तर कम होनेवाली) विशिष्ट होती है। क्योंकि इसमे भी तीर्थ का अनुसरण होता है और मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया और लोभ को उत्पत्ति होती है। दुःखम-दुखमा काल के आरम्भ तक (प्राणियों की) आयु का ह्रास होता रहता है। दुःखम-दुखमा काल के आरम्भ में बीस वर्ष की आय होती है, लम्बाई दो हाथ होती है, अन्त में सोलह वर्ष की आयु होती है, लम्बाई एक हाथ होती है। उपभोगपरिभोग अमनोरम मांसादि से होते हैं, न्यून प्रभाव होते हैं, अत्यन्त रूप से धर्माधर्म सज्ञा का भेद नहीं होता है। इस प्रकार यह अवसर्पिणी होती है। उत्सर्पिणी भी पश्चात् कम से इसी प्रकार होती है। इस प्रकार यह कालचक्र प्रवर्तित होता है। इस प्रकार इस भरतवर्ष की इस अवसिपिणी में यह भगवान प्रथम धर्मचक्रवर्ती थे। पहले धर्म नहीं था, ऐसा नहीं है ।' राजा ने कहा-'भगवन् ! ठीक है, हमारा मोह दूर हो गया। भगवान् से अनुगृहीत हुआ मैं आदेश की इच्छा करता हूँ।' इसी बीच वहाँ अत्यन्त मध्यस्थ बुद्धि से युक्त परलोक से डरनेवाला, वृद्धावस्था वाला इन्द्रशर्मा नामक ब्राह्मण आया। भगवान् और गुरु की वन्दना कर गुरु के पास बैठ गया । उसने कहा-'भगवन् ! जो ये आपके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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