Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 404
________________ ८५४ [समराइच्च कहा रोद्दा विसयत्तणी सव्वा, किमेइणा । संपयं पि धम्ममेत्तसरणाई होइ, परिच्चयह सव्वमन्नं । तेहि भणियं -- जं भयवं आइसइ । किं तु अवस्समेव उज्झियत्वा अम्हेहि पाणा, न सकुणेमो अकज्जाय कलंकदूसियं बोंदि तुह वयणाओ जणियपच्छायावाई संपयं खणमवि धारेउं । एवं ववस्थिए समाइसउ भयवं ति । साहिओ देवेण धम्मो, परिणओ भावेण । कया सव्वविरई, पच्चक्खायमण सणं, जाओ त्रिसुपरिणामो, निदियाई पुग्वदुक्कडाई, परिणओ संवेओ, भावियं भवसरूवं, पडिबुद्धाणि ति । कय किच्चभावेण पक्खिविध नियकडेवरं उप्पइओ देवो ति । एयमायणऊण संविग्गो राया । भणियं च णेण - अहो न किंचि एयं माइंदजालसरिसं भवचेट्ठियं | दुल्लहो खलु इहं कल्लाणमित्तजोओ, हिओ एगंतेण न इओ किंचि हिययरं, जेण एयाण fa एवं पहाणगुणलाही ति । सव्र्व्वेहि भणियं - महाराव, एवमेयं । संविग्गाणि सव्वाणि, विरताणि भवाओ। राइणा भणियं वच्छ, कहिं पुण एयाण उववाओ भविस्सइ । कुमारेण भणियं -- ताय, सोहम्मे । राइणा भणियं - विरुद्धयारीणि एयाणि । कुमारेण भणियं-ताय, सच्चमेय; विरुद्धयारीणि, रौद्रा विषयवर्तनी सर्वथा, किमेतेन । साम्प्रतमपि धर्ममात्रशरणो भवतम्, परित्यजतं सर्वमन्यत् । ताभ्यां भणितम् - यद् भगवान् आदिशति । किन्त्वदयमेव उज्झितव्या आवाभ्यां प्राणाः, न शक्नुवोऽकार्याच रणकलङ्कदूषितां बोन्दि (शरीरं) तव वचनाद् जनितपश्चात्तापो साम्प्रतं क्षणमपि धारयितुम् । एवं व्यवस्थिते समादिशतु भगवानिति । कथितो देवेन धर्मः, परिणतो भावेन । कृता सर्वविरतिः, प्रत्याख्यातमनशनम्, जातो विशुद्धपरिणामः निन्दितानि पूर्वदुष्कृतानि परिणतः संवेगः, भावितं भवस्वरूपम्, प्रतिबुद्धाविति । कृत्यकृत्यभावेन प्रक्षिप्य निजकलेवरमुत्पतितो देव इति । एतदाकर्ण्य संविग्नो राजा । भणितं च तेन - अहो न किञ्चिदेतद्, मायेन्द्रजालसदृशं, भवचेष्टितम् । दुर्लभः खलु इह कल्याणमित्रयोगः, हित एकान्तेन न इतः किञ्चिद् हिततरम्, येन एतयोरपि एवं प्रधानगुणलाभ इति । सर्वैर्भणितम् - महाराज ! एवमेतत् । संविग्नाः सर्वे, विरक्ता भवात् । राज्ञा भणितम् - वत्स ! कुत्र पुनरेतयोरुपपातो भविष्यति । कुमारेण भणितम् - तात ! सौधर्मे । राज्ञा भणितम् - विरुद्धकारिणो एतौ । कुमारेण भणितम्-तात ! सत्यमेतद्, ऐसी ही है, मोह की चेष्टा भयंकर है, विषयों का रास्ता भयकर है। इससे क्या इस समय भी आप दोनों अन्य सब छोड़कर मात्र धर्म की शरण में होइए। उन दोनों ने कहा- 'जो भगवान् आदेश दें। किन्तु हम दोनों अवश्य ही प्राण छोड़ देंगे, अकार्य का आचरण करनेरूपी कलंक से युक्त शरीर को आपके वचनों से उत्पन्न पश्चात्ताप वाले हम दोनों अब क्षण भर भी धारण करने में समर्थ नहीं हैं । ऐसी स्थिति में आप आदेश दें ।' देव ने धर्मं कहा, भावपूर्वक परिणत हो गया । समस्त परिग्रहों को छोड़ दिया, अनशन धारण किया, विशुद्ध परिणाम उत्पन्न हुआ, पहले के खोटे कार्यों की निन्दा की, संवेग वृद्धिंगत हुआ, संसार के स्वरूप का विचार किया, दोनों जागृत हो गये । कृतकृत्य होकर अपने शरीर को फेंक कर देव ऊपर चला गया । यह सुनकर राजा भयभीत हुआ और उसने कहा - 'ओह यह कुछ नहीं है, सांसारिक कार्यं मायामयी इन्द्रजाल के सदृश हैं, यहाँ पर निश्चय से कल्याणमित्र का मिलना दुर्लभ है, एकान्तरूप से ( कल्याणमित्र का मिलना ) हितकर है, इससे अधिक कोई हितकर नहीं है जिससे इन दोनों को भी इस प्रकार प्रधान गुणों का लाभ हुआ ।' सबने कहा--'यह ठीक है ।' सभी उद्विग्न हुए, संसार से विरक्त हो गये । राजा ने कहा - 'पुत्र ! ये दोनों कहाँ उत्पन्न होंगे ?' कुमार ने कहा- 'पिता जी ! सौधर्म स्वर्ग में ।' राजा ने कहा - 'ये दोनों विरुद्ध कार्य करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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