Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 406
________________ ८५६ [ समराइच्चकहा असुंदरे पयईए अगवट्टियसिगेहविभमे निहाणभूए सवावयाणं महाधोरसंसारम्मि। ता इच्छामि तायाणुन्नाओ एयमन्तरेण जइउं । संसिझंति नियमेण पाणिणो गुरुसमाइट्ठाई विहिणा पवत्तमाणस्स कुसलसमीहियाई। ता करेउ ताओ पसायं, अणुजाणउ म एयवइयरम्मि। भणमाणो निवडिओ चलणेसु । राइणा भणियं-वच्छ, नणु सवसिमेव अम्हाणमयं निच्छओ, ता अणुजापिओ मए। अहवा तुम चेव अम्हाण विमलनाणभावओ भावोवयारसंपायणेण कारणपरिसयाए गुरू, किमवं. पुच्छसि । ता करेहि कारवेहि य जं एत्थ उचिय ति । कुमारेण भणियं-ताय, महापसाओ; उचियं च ववसियं ताएण। एत्थंतरम्मि गलियपाया रयणी, पहयाइं पाहाउयाई तुराई, विभिओ बंदिसहो, पवाइया पच्चसपवणा, उल्लसिओ अरुणो, पणटुमंधयारं, समागया दिवसलच्छी, विउद्धं नलिणिसंडं, मिलियाई चक्कवायाई । पविट्ठा अमच्चा। साहियं तेसि कुमारचरियं, जाणाविओ निययाहिप्पाओ । बहुमओ अमच्चाण । भणियं च तेहिं -देव, जुतमेयं, सिझइ य एवं देवस्स । अचिवितामणिभूओ कुमारो रेतस्मिन् नटपेट कोपमेऽसुन्दरे प्रकृत्या अनवस्यतस्नेहविभ्रमे निधानभूते सर्वापदां महाघोरसंसारे। तत इच्छामि तातानुज्ञात एतत्सम्बन्धन यतितुम् । ससिध्यन्ति नियमेन प्राणिनो गुरुसमादिष्टानि विधिना प्रवत मानस्य कुशलसमीहितानि । ततः करोतु तातः प्रसादम्, अनुजानातु म मेतद्व्यतिकरे। भणन् निपतितश्चरणथोः । राज्ञा भणितम्- वत्स ! ननु सर्वेषामेवास्माकमयं निश्चयः, ततोऽनुज्ञातो मया । अथवा त्वमेवास्माकं विमलज्ञानभावता भावोपकारसम्पादनेन कारणपुरुषतया गुरुः, किमेव पृच्छसि । ततः करु कारय च यदत्रोचितमिति । न मारेण भणितम्-तात ! महाप्रसादः, उचितं च व्यवसित तातेन। अत्रान्तरे गलितप्राया रजनी, प्रहतानि प्राभातिकानि तूर्याणि, विजृम्भितो बन्दिशब्दः, प्रवाताः प्रत्यूषपवनाः, उल्लसितोऽरुणः, प्रनष्टमन्धकारम, समागता दिवा लक्ष्मीः, विबद्ध नलिनी. षण्डम, मिलिताश्चक्रवाकाः। प्रविष्टा अमात्याः । कथितं तेषां कुमारचरितम ज्ञापितो निजाभिप्रायः। बहुमतोऽमात्यानाम्, भणितं च तैः-देव ! युक्तमेतद्, सिध्यति चैतद् देवस्य । अविन्त्यचिन्तामणि हैं कि नट के पिटारे के समान असुन्दर, प्रकृति से चंचल, अस्थिर स्नेहरूपी भ्रमवाले, समस्त आपत्तियो के स्थानस्वरूप इस महाभयंकर संसार में निश्चितरूप से मेरी रति नहीं है, अत: पिताजी से आज्ञा पाकर इस सम्बन्ध में प्रयत्न करना चाहता हूँ। गुरु के द्वारा उपदेशित विधि से शुभ मनोरथों में प्रवृत्त हुए प्राणी नियम से सिद्धि प्राप्त करते हैं। अतः पिताजी कृपा कीजिए, इस अवसर पर मुझे आज्ञा दीजिए' ऐसा कहकर चरणों में गिर गया। राजा ने कहा-'निश्चित रूप से हम सभी लोगों का यह निश्चय है, अत: मैंने अनुमति दी, अत: तुम ही इस निर्मल ज्ञान से भावोपकार करने के कारण-गुरुप होने से हमारे गुरु हो, इस प्रकार क्यों पूछते हो ? अतः यहाँ पर जो योग्य हो, उसे करो और कराओ।' कुमार ने कहा- 'पिताजी ! बड़ी कृपा की और पिताजी ने सही निश्चय किया। इसी बीच रात्रि क्षीणप्राय हो गयी, प्रात:कालीन वाद्य बजे, बन्दियों का शब्द बढ़ा, प्रातःकालीन वायु चली, अरुणोदय हुआ, अन्धकार नष्ट हो गया, दिवसलक्ष्मी आयी, कमालनिया का समूह खिल गया, चकव मिल गये। मन्त्रियों ने प्रवेश किया। उनसे कुमार का चरित कहा, अपना अभिप्राय प्रकट किया। अमात्यो ने माना और उन्होंने कहा 'महाराज ! यह ठीक है, यह महाराज को सिद्ध होगा। अचिन्त्यचिन्तामणि के समान कुमार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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