Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 400
________________ ८५० [ समराइच्चकहा पयत्तेण वि सम्वहा न चएमि भावोवयारं काउं मित्तभारियाणं पि, किमंग पुण अन्नेसि । अहो मे अप्पंभरित्तणं, अहो दुक्खहेउया, अहो अकयत्थत्तणं, अहो कम्मपरिणई; जेण मए वि संगयाणं एएस ईइस किलिचेद्वियं उवहासपायं लोए निबंधणं कूगइवासस्स । सम्वहा विराहियं मए सुहासियरयणं, जमेवं सुणीयइ, 'न खल निष्फलो कल्लाणमित्तजोओ' त्ति । कोइसी वा मम कल्लाणया, जेण एवमेयं हवइ । अत्थि एयाणमवरि मम पक्खवाओ। इमं पुण भयवंतो केवली वियाणंति । सहा परममन्तसुमरणे करेमि पयत्तं ति। तमेव चितिउमाढत्तो। नमो वीयरायाणं नमो गरुयणस्स त्ति । एवं भावसारं चितयंतो विमुक्को जोविएण, उप्पन्नो बम्भलोए । दिन्नो अणेणोवओओ। कोऽहमिमो कि दाणं का दिक्खा को व मे तवो चिण्णो । जेण अहं कयपुण्णो उप्पन्नो देवलोगम्मि ॥१००६॥ एव चितयतेण ओहिणा आभोइयं सव्वं । अकाऊण देवकिच्चं पहाणकरुणासगओ विबोहणनिमित्तं मित्तभारियाण सयराहमेव समागओ इहइं। न एवंविहाण अईवरायपडिबद्धाणं विणिवायस्थितानामविशेषेण प्रायो न भवत पाबद्धिः प्राणिनामिति । अह परधन्योऽत्यन्त सहत्योः प्रयत्नेनापि सर्वथा न शक्नोभि भावोपकारं तु मित्रभार्ययोरपि, किमङ्ग पुनरन्येषाम् । हो मे आत्मभरित्वम , अहो दुःखहेतता, अहो अकृतार्थत्वम, अहो कर्मपरिणतः, येन मयाऽप सड़तयो रेत शेरोदृशं क्लिष्ट वेष्टि तमुपहासप्रायं लोके निबन्धनं कुगतिवासस्य । सर्वथा विराधितं मया सुभाषितरत्नम्, यदेवं श्रूयते न खलु निष्फलः कल्याणमित्रयोगः' इति । कीदृशी वा मन कल्याणता, येनैवमेतद् भवति । अस्त्येतयोरुपरि मम पक्षपातः। इदं पुनर्भगवन्तः केवलिनो विजानन्ति । सर्वथा परममन्त्रस्मरणे करो म प्रयत्नमिति । तदेव चिन्तयितुमारब्धः। नमो वीतर गेभ्यः, नमो गुरुजनायेति । एवं भावसारं चिन्तयन् विमुक्तो जीवितेन, उत्पन्नो ब्रह्मलोके । दत्तोऽनेनोपयोगः । कोऽहमय किं दानं का दीक्षा कि वा मया तपश्चीर्णम । येनाहं कृतपुण्य उत्पन्नो देवलोके ॥१००६॥ एवं चिन्तयताऽवधिनाऽऽभोगितं सर्वम । अकृत्वा देवकृत्यं प्रधानकरुणासङ्गतो विबोधननिमित्तं मित्रभार्ययोः शीघ्रमेव समागत ह । नैवंविधानामतीवरागप्रतिबद्धानां विनिपात दर्शन की सामान्यत: पापबुद्धि नहीं होती है। मैं अधन्य हैं जो कि प्रयत्न से अत्यधिक मिले हए मि और भार्या का भावों से उपकार नहीं कर सकता हूँ. दसरों की तो बात ही क्या । ओह मेरा अपने आपका भरणपोपण करने वाला होना, ओह दुःख का कारणपना, ओह अकृतार्थता, ओह कमों का फल; जिससे मैं भी इन दोनों के साथ इस प्रकार दुःखी चेष्टावाला उपहासप्राय और लोक में कुगतिवास का कारण होऊँगा। सर्वथा मैंने सभाषितरूपी रत्न का विगधन कर दिया जो कि इस प्रकार सुना जाता है कि कल्याण (करने वाले) मित्र का मिलना निश्चित रूप से निष्फल नहीं होता है। मेरी कैसी कल्याणता जो कि यह इस प्रकार हो रहा है। मेरा इन दोनों पर पक्षपात है। इसे भगवान केवली जानते हैं। सर्वथा परममन्त्र (णमोकार मंत्र) का स्मरण करने का प्रयत्न करता है। उसी का स्मरण करना आरम्भ किया। वीतरागों को नमस्कार हो, गरुजनों को नमस्कारहो। इस प्रकार साररूप भावों का चिन्तन करते हुए जीवन छोड़ा, ब्रह्मलोक में उत्पन्न हआ। इसने ध्यान लगाया। यह मैं कौन हूँ? मैंने क्या दान, दीक्षा अयवा तपश्चरण किया, जिससे मैं पूण्य कर स्वर्गलोक में उत्पन्न हुआ ? ||१००६॥ . इस प्रकार सोचले हए अवधिज्ञान से सब जान लिया । देवों के करने योग्य कार्यों को न कर प्रधानकरुणा से यक्त हो मित्र और पत्नी को संबोधित करने के लिए शीघ्र यहाँ आया । इस प्रकार के तीव्र राग में बंधे हए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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