Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 401
________________ नवमो भवो] दसणमंतरेण संभवइ बोहो त्ति पउत्ता देवमाया, कया बंधुलाए विसूइया। गहिया महावेयणाए, वेउब्वियं अतुइजंबालं अइचिक्कणं फासेण पगिट्टदुरहिगंध अमणोरमं असुइभक्खणरयाणं पि। सव्वहा तेण एवंविहेण भिन्ना उभयपासओ। हा हा मरामि त्ति अवलंबए धणयनं । भिज्जए पुणो पुणो घणयतो वि तेण पावेण विय लिप्यमाणो जंबालेण । गहिओ सोयवेयणाहि; जाया महाअरई । चितियं च ण-अहो कोइसं जायं ति । उविग्गो मणागं ओसरइ बंधलाओ। तीए चितियं-अहो एयस्स नेहो, संपथं चेव उब्वियइ। भणियं च णाए-हा हा मरामि ति, महई मे वेयणा, भज्जति अंगाई। तेण भणियं-किमहमेत्थ करेमि, असझं खु एयं । तीए भणियं-संवाहेहि मे अंगं । लग्गो संवाहिउं उवरोहमेत्तेण। लेसिया हत्या, न चएइ वावारिउं। तओ चितियमणेण - अहो किपि एयं अइपुव्वमम्हेहि मुत्तिमंतं विय पावं, पगरिसो असंदराणं । भणियं च सकरुणं-पिए, किमहमेत्थ करेमि, न वहति मे हत्था । गहिओ य अरईए, सव्वहा पावविलसिथमिणं । बंधलयाए चितियं- एवमेयं न अन्नहा। महंतमेवेयं पावं, जं परमदेवयाकप्पो सिणेहाल वंचिओ भत्तारो, कयमिणं उभयलोय. मन्तरेण सम्भवति बोध इति प्रयुक्ता देवमाया, कृता बन्धुलाया (लतायाः) विसूचिका । गृहीता महावेदनया, विकवितमशुचिजम्बालमति चिक्कणं स्पर्शेन प्रकृष्ट दुरभिगन्धममनोरममशुचिभक्षणरतानामपि । सर्वथा तेनेवंविधेन भिन्ना उभयपार्वतः। हा हा म्रिये इत्यवलम्बते धनदत्तम । भिद्यते पुनर्धनदत्तोऽपि तेन पापेनेव लिप्यमानो जम्बालेन । गृहीतः शोक वेदनाभिः, जाता महाऽरतिः । चिन्तितं च तेन-अहो कीदृशं जात मिति । उद्विग्नो मनागपसरति बन्धुलायाः (लतायाः)। तया -अहो एतस्य स्नेहः. साम्प्रतमेव सद वेक्ति। भणितं च तया-हा हा म्रिय इति, महती मे वेदना, भज्यन्तेऽङ्गानि । तेन भणितम - किमहमत्र करोमि, असाध्यं खल्वेतत् । तया भणितम् - संवाहय मेऽङ्गम् । लग्नः संवाहयितुमुपरोधमात्रेण। श्लेषितौ हस्तौ, न शक्नोति व्यापारयितुम् । ततश्चिन्तितननेन-अहो किमप्येतददृष्टपूर्वमावाभ्यां मूतिम दिव पापं, प्रकर्षोऽसुन्दराणाम् । भणितं च सकरुणम् - प्रिये ! किमहमत्र करोमि, न वहतो मे हस्तौ । गृहीतश्चारत्या, सर्वथा पापविलसितमिदम् । बन्धु (त)या चिन्तितम् --एवमेतद् नान्यथा। महदेवैतत् पापम्, यत् परमदेवताकल्पः चिन्तित लोगों को अधःपतन दिखाये बिना बोध सम्भव नहीं है-ऐसा विचारकर देवमाया का प्रयोग किया। बन्धूला को हैजा कर दिया । उसे अत्यधिक वेदना ने जकड़ लिया, स्पर्श की अपेक्षा अत्यन्त चिकना विष्टा का कीचड़ कर दिया जो कि अपवित्र पदार्थों के भक्षण में रत रहने वालों की विष्टा से भी अत्यधिक दुर्गन्धित और बुरा था । उसने इस प्रकार दोनों पार्श्वभाग तोड़ दिये । 'हाय हाय, मर गयी' इस प्रकार धनदत्त का सहारा लिया । धनदत्त भी उसी पाप रो कीचड़ (विष्टा) से लिप्त हआ बार बार भिद गया। शोक और वेदना ने घेर लिया, अत्यधिक अरति उत्पन्न हुई और उसने सोचा-ओह ! कैसा हो गया ? इस प्रकार उद्विग्न होकर थोड़ा बन्धुला के पास सरका । उसने सोचा-ओह इसका स्नेह, इस समय भी उद्विग्न हो रहा है। उसने कहा - 'हाय मैं मर गयी, मुझे बहुत वेदना हो रही है, अंग-अंग टूट रहे हैं।' उसने कहा-'मैं यहाँ क्या करूँ, यह असाध्य है।' उसने कहा--'मेरे अंगों को दबाओ।' अनुग्रह मात्र से दबाने में लग गया। हाथ चिपक गये, चलाने में समर्थ नहीं हुआ। अनन्तर इसने सोचा-ओह ! यह पहले न देखा गया हम दोनों का कोई मानो शरीरधारी पाप है, अशोभन की चरमसीमा है। करुगायुक्त होकर कहा-'प्रिये ! मैं यहाँ क्या करूँ ? मेरे हाथ नहीं चलते हैं। अरति ने ग्रहण कर लिया, सर्वथा यह पाप की क्रीड़ा है ।' बन्धुला ने सोचा- ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है । यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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