Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 394
________________ ८४४ [समराइच्चकहा अन्नहा हवइ । विसमा य मयणवाणा। ता परिक्खामि ताव एवं ति। चिंतिऊण पइरिक्कम्मि भणिया नम्मया-सुंदरि, रायाएसेणं गंतव्वं मए माहेसरं, आगंतब्धं च सिग्धमेव । ता सुंदरीए कइवि दियहे सम्ममातियव्वं ति । नम्ममाए भणियं - अन्ज उत्त, अहं पि गच्छामि; कोइसं मम तए विणा सम्मति भणमाणी परुइया एसा । भणिया य पुरंदरेण सुंदरि, अलं सिणेहकायरयाए, न मम तत्थ खेवो त्ति। नम्मयाए भणियं-अज्जउत्तो पमाणं ति। बिइयदियहे य निग्गओ पुरंदरो, गओ मायापओएण। अइवाहिऊण कहिंचि वासरं पविट्ठो रयणीए। गओ अद्धरत्तसमए निययभवणं,पविट्ठो वासगेहं । दिट्ठा य ण सुरयायासखेयसहपसुत्ता समं अज्जुणएण नम्मया । कुविओ खु एसो,पणट्ठा विवेयवासणा । चितियं चणेण-सहाहारतुल्लाओ इत्थियाओ; जत्तेण एतासि भोओ पालणं च । दुट्ठो य दुरायारो अज्जणओ, जो मे कलत्तं अहिलसइ; ता एयं वावाएमि त्ति । चितिऊण सुहपसुत्तो वावाइओ णेण अज्जुणओ। वावाइऊण य निग्गओ वासगेहाओ। चितियं च ण-पेच्छामि, कि मे पिययमा करेइ त्ति । ठिओ एगदेसे । तहाविहरुहिरफंसेण विउद्धा नम्लया। दिट्ठो य णाए दोहनिद्दापसुत्तो अज्जुणओ। चितियं भवति । विषमाश्च मदनबाणाः। ततः परीक्षे तावदेतामिति । चिन्तयित्वा प्रतिरिक्ते भणिता नर्भदा-सुन्दरि ! राजादेशेन गन्तव्यं मया माहेश्वरम्, आगन्तव्यं च शीघ्रमेव । ततः सन्दर्या कत्यपि दिवसान सम्यगासितव्यमिति । नर्मदया भणितम्-आर्यपुत्र ! अहमपि गच्छामि, की दशं मम त्वया विना सम्यगिति भणन्ती प्ररुदितैषा। भणिताच पुन्द रेण-सुन्दरि! अलं स्नेहकातरतया. न मम तत्र क्षेप (बिलम्ब) इति । नर्मदया भणितम्- आर्यपुत्रः प्रमाणमिति। द्वितीय दिवसे च निर्गतः पुरन्दरः, गतो मायाप्रयोगेण । अतिबाह्य कुत्रचिद् वासरं प्रविष्टो रजन्याम् । गतोऽर्धरात्रसमये निजभवनम, प्रविष्टो वासगेहम् । दृष्टा च तेन सुरतायासखेदसुख प्रसुप्ता सममर्जनेन नर्मदा। कुपितः खल्वेषः, प्रनष्टा विवेकवासना । चिन्तितं च तेन-सुधाहारतुल्या: स्त्रियः, यत्नेनैतासां भोगः पालनं च । दुष्टश्च दुराचारोऽर्जनः, यो मे कलत्रमभिलषति, तत एतं व्यापादयामीति । चिन्तयित्वा सुखप्रसुप्तो व्यापादितस्तेनार्जुनः । व्यापाद्य च निर्गतो वासगेहात् । चिन्तित च तेनपश्यामि, कि मे प्रियतमा करोतीति । स्थित एकदेशे। तथाविधरुधिरस्पर्शन विबुद्धा नर्मदा । दष्टश्च प्र यः वैर बँधा रहता है। मेरी माता ईर्ष्यालु नहीं है, पुन: प्रियतमा में गुणों की अधिकता है, 'स्त्रियाँ चंचल होती है' ऐसा ऋषि का वचन है अत: अन्य या नहीं होगा। काम के बाण विषम होते हैं। अत: इसकी परीक्षा करता हूँ-ऐसा सोचकर एकान्त में नर्मदा से कहा---'सुन्दरी ! राजाज्ञा से मुझे माहेश्वर को जाना है और शीघ्र ही आ जाऊँगा। अत: सुन्दरी, कुछ दिन तक भली प्रकार रहना।' नर्मदा ने कहा-'आर्यपुत्र ! मैं भी चलूंगी, तुम्हारे बिना भलीप्रकार कैसे रहूँगी?' - ऐसा कहती हुई यह रो पड़ी। पुरन्दर ने कहा-'सुन्दरी ! स्नेह से दुःखी मत होओ, वहाँ पर मैं देर नहीं करूंगा।' नर्मदा ने कहा- 'आर्यपुत्र प्रमाण हैं।' दूसरे दिन पुरन्दर निकल गया, छल से गया । कुछ दिन बिताकर रात्रि में प्रविष्ट हुआ। आधी रात के समय अपने घर में गया, शयनगृह में प्रवेश किया। उसने सम्भोग के परिश्रम की थकावट से सुखपूर्वक अर्जुन के साथ सोई हुई नर्मदा को देखा। यह कुपित हुआ, विवेक का संस्कार नष्ट हो गया। उसने सोचा-स्त्रियाँ अमृत के तुल्य होती हैं, इनका यत्न से भोग और पालना करना चाहिए। अर्जुन दुराचारी और दुष्ट है जो कि मेरी प्रिया की अभिलाषा करता है, अतः इसे मारता हूँ-ऐसा सोचकर सुख से सोये हुए अर्जुन को उसने मार दिया। मारकर शयनगृह से निकल गया। उसने सोचा-देखू मेरी प्रिया क्या करती है। एक स्थान पर खड़ा रहा । उस प्रकार के खून के स्पर्श से नर्मदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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