Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 388
________________ [ समराइच्चकहा त्वया अणरुहो आएसस्स। कुमारेण भणियं-अंब, मा एवं भण। गुरवो खु तुब्भ, गुरआएससंपाडणमेव कारणं गुणपगरिसस्स। राइणा भणियं—कुमार, अइदुक्करं कय तए। कुमारेण भणियं-ताय, किमिह दुक्करं । सुणाउ ताओ। ___ अत्थि खलु केइ चत्तारि पुरिसा। ताणं दुवे अच्चतमत्थगिद्धा अवरे विसयलोलुया। पवन्ना एगमद्धाणं । दिवा य हि कहिंचि उद्देसे मणिरयणसुवण्णपुग्णा दुवे महानिहो तियससुंदरिसमाओ य दो चेव इत्थियाओ। पावियं जं पावियव ति पहट्ठा चित्तेण, धाविया अहिमुहं । सुओ य हिं कुओइ सद्दो । भो भो पुरिसा, मा साहसं मा साहसं ति। निरूवेह उवरिहत्तं, निवडइ तुम्हाण उवरि महापव्वओ, एयगोयरगयाणं च अलमेइणा चेट्ठिएण। तओ निरूवियमणेहि । दिट्ठो य नाइदूरे समद्धासियनहंगणो रोदो दंसणेण अक्कमंतो जहासन्नजीवे अणिवारणिज्जो सुराण पि सामत्थेण दुयं निवडमाणो पव्वओ त्ति । तओ जंपियमणेहि-भो एवं ववत्थिए को उण इह उवाओ। आर्याण्णयं कुओइ। न खलु संपयं उवाओ। किंतु इच्छंति जे अत्थविसए, ते संपतेहिं असंपत्तेहि वा जहासन्नयाए अवटुम्भंति एएण; तहा अवटुद्धा य पावेंति पुणो पुणो एवमेवावट्ठहणं ति । जे उण निरीहा अत्थविसएसु भणितम् – कुमार ! गुणप्रकर्षस्त्वमनह आदेशस्य । कुमारेण भणितम्- अम्ब ! मंवं भण। गुरवः खलु यूयम्, गुर्वादेशसम्पादनमेव कारणं गुणप्रकर्षस्य। राज्ञा भणितम्--कुमार ! अतिदुष्कर कृतं । कमारेण भणितम-तात ! किमिह दुष्करम । शृणोतु तातः सन्ति खलु केऽपि चत्वारः पुरुषाः। तेषां द्वावत्यन्तमर्थगद्धौ अपरौ विषयलोलुपौ। प्रपन्ना एकमध्वानम् । दृष्टाश्च तैः कथञ्चिदुद्देशे मणिरत्नस्वर्णपूौं द्वौ महानिधी त्रिदशसुन्दरीसमे च द्वे एव स्त्रियो । प्राप्तं यत् प्राप्तव्यमिति प्रहृषिताश्चित्तेन धाविता अभिमुखम् । श्रुतश्च तैः कुतश्चित् शब्दः । भो भोः पुरुषा! मा साहसं मा साहसमिति । निरूपयतोपरिसम्मुखम्, निपतति युष्माकमुपरि महापर्वतः, एतद्गोचरगतानां चालमेतेन चेष्टितेन । ततो निरूपितमेभिः। दृष्टश्च नातिदूरे समध्यासितनभोङ्गणो रोद्रो दर्शनेनाक्रामन् यथाऽऽसन्नजीवान् अनिवारणीयः सुराणामपि सामर्थ्येन द्रुतं निपतन् पर्वत इति । ततो जल्पितमेभिः-भो ! एवं व्यवस्थिते कः पुनरिहोपायः । आकणितं कुतश्चित्-न खलु साम्प्रतमुपायः । किन्तु इच्छन्ति येऽर्थविषयेषु ते सम्प्राप्तरसम्प्राप्तर्वा यथासन्नतयाऽवष्टभ्यन्ते एतेन, तथाऽवष्टब्धाश्च प्राप्नुवन्ति पुनः पुनरेवमेवावष्टम्भनमिति । ये पुननिरीहा का वृत्तान्त कहा। महारानी ने कहा-'कुमार ! गुणों की चरमसीमा वाले तुम आदेश के योग्य नहीं हो।' कुमार ने कहा-'माता ! ऐसा मत कहो। आप माता-पिता हो, माता-पिता के आदेश का पालन करना ही गणों के प्रकर्ष का कारण है।' राजा ने कहा-'कुमार ! तुमने अत्यधिक कठिन कार्य किया है।' कुमार ने कहा-'पिता जी ! कठिन कार्य कैसा ! पिता जी सुनिए कोई चार पुरुष थे। उनमें से दो अत्यन्त धन के लालची थे, दूसरे दो विषयलोलपी थे। मार्ग में जा रहे थे। उन्होंने किसी स्थान पर मणि, रत्न और स्वर्ण से पूर्ण दो महानिधि और देवांगनाओं के समान दो स्त्रियाँ, देखीं। जो प्राप्त करने योग्य वस्तु थी वह प्राप्त कर ली, इस प्रकार चित्त में हर्षित हए । सामने दौड़े। उन्होंने कहीं से शब्द सुना-हे हे पुरुषो ! साहस मत करो, साहस मत करो। ऊपर की ओर देखो, तुम्हारे ऊपर महापर्वत गिर रहा है। इसके मार्ग में आए लोगों को इन चेष्टाओं में नहीं पड़ना चाहिए। समीप में ही आकाश रूपी आँगन में अधिष्ठित, देखने में विकराल, समीपवर्ती जीवों पर आक्रमण करता हुआ, देवताओं से भी न रोके जाने योग्य शीघ्र ही गिरते हुए पर्वत को देखा। अनन्तर इन लोगों ने कहा-अरे ! ऐसी स्थिति में क्या उपाय है? कहीं से सुना-अब उपाय नहीं है, किन्तु जो पदार्थों के विषयों की इच्छा करते हैं वे प्राप्त होने अथवा न होने पर समीपवर्ती होने से इसके द्वारा आक्रान्त हो जाते हैं, उस प्रकार से आक्रान्त हए वे पूनः पुनः आक्रान्तपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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