Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ मवमो भवो] ८२७ महारायाणो, पवियंभिओ भुयंगलोओ, आणंदिया नयरी, हरिसिओ राया। तओ महया विमद्देण संवेगमावियमई चितयंतो भवसरूवं थुन्यमाणो बंदीहिं पसंसिज्जमाणो लोएण पत्तो विवाहभवणं, ओइण्णो रहवराओ, संपाडिओ से विही, कयमणेणोचियं । विट्ठाओ वहूओ अइसंदराओ रूवेण । तत्थ विम्भमवई कणयावदाया, कामलया उण सामला, सिणिद्धदसणाओ य दो वि नियवणेहि । विन्भमवई गयदंतमई विय धीउल्लिया कंकुमकयंगराया अच्चंतं विरायए, कामलया उण धोइंदणीलमणिमई विय सरसहरियंदविलेवण त्ति । ताओ य दट्ठण चितियं कुमारेण - अहो एयासि कल्लाणा आगिई, पसत्थाई अंगाई, निक्कलंक लायण्णं, विसुद्धो आभोओ, उवसंता मुत्ती, संदराई लक्खणाइ, अणहा धीरया, उचिओ विणयमग्गो; अओ भवियव्वमेयाहिं पत्तभूयाहिं। एत्थंतरम्मि वत्तो हत्थग्गहो. जालिओ अग्गी. कयं जहोचियं, भमियाडं मंडलाइं, संपाडिया जणोक्यारा, दिन्नं महादाणं. घोसिया वरवरिया, वत्तो विवाहजन्नो, संपाडिया सरीरदिई। परिणओ वासरो, सीयलीहूयं रविबिबं, संहरिओ किरणनियरो, समागया संझा, कणयरसरज्जिय पिव जायं नहंगणं, वियंभिया पुन्ववारविलासिन्यः, प्रगीतानि मङ्गलमन्तःपुराणि, चलिता महाराजाः, प्रविम्भितो भुजङ्गलोकः, आनन्दिता नगरी, हर्षितो राजा। ततो महता विमर्देण संवेगभावितमतिश्चिन्तयन् भवस्वरूपं स्तयमानो बन्दिभिः प्रशस्यमानो लोकेन प्राप्तो विवाहभवनम्, अवतीर्णो रथवरात् सम्पादितस्तस्य विधिः, कृतमनेनोचितम् । दृष्टे वध्वौ अतिसुन्दरे रूपेण । तत्र विभ्रमवती कनकावदाता, कामलता पुनः श्यामला, स्निग्धदर्शने च द्वे अपि निजवर्णैः । विभ्रमवती गजदन्तमयीव पुत्रिका कुङ कमकृताङ्गरागाऽत्यन्तं विराजते, कामलता पुनधौ तेन्द्रनीलमणिमयीव सरसहरिचन्दनविलेपनेति । ते च दृष्ट्वा चिन्तितं कुमारेण - अहो एतयोः कल्याणाऽऽकृतिः, प्रशस्तान्यङ्गानि, निष्कलङ्क लावण्यम्, विशुद्ध आभोगः, उपशान्ता मूर्तिः, सुन्दराणि लक्षणानि, अनघा धीरता, उचितो विनतमार्गः, अतो भवितव्यमेताभ्यां पात्रभूताभ्याम् । अत्रान्तरे वृत्तो हस्तग्रहः, ज्वालितोऽग्निः, कृतं यथोचितम्, भ्रान्तानि मण्डलानि, सम्पादिता जनोपचाराः, दत्तं महादानम्, घोषिता वरवरिका, वृत्तो विवाहयज्ञः, समादिता शरीरस्थितिः। परिणतो वासरः, शीतलीभूतं रविबिम्बम्, संहृत: किरणनिकरः, समागताः सन्ध्या, कनकरसरजितमिव जातं नभोङ्गणम्, विजृम्मिता पूर्वदिक्, समुद्गतश्चन्द्रः, किया, अन्तःपुरिकाओं ने मंगल गीत गाये, महाराजा चले, विटों का समूह बढ़ा, नगरी आनन्दित हुई, राजा हर्षित हुआ । अनन्तर अत्यधिक भीड़ के साथ वैराग्य बुद्धि से संसार के स्वरूप का विचार करता हुआ, बन्दियों से स्तुति किया जाता हुआ, लोगों द्वारा प्रशंसा किया जाता कुमार विवाहभवन में आया, श्रेष्ठ रथ से उतरा, उसकी विधि का सम्पादन किया गया, इसने योग्य विधि पूरी की। अत्यन्त सुन्दर रूप में दोनों वधएं दिखाई दीं। उनमें विभ्रमवती स्वर्ण के समान स्वच्छ थी और कामलता श्यामवर्ण वाली थी, किन्तु अपने-अपने रंगों से दोनों मनोहरदर्शन वाली थीं। कुंकुम का अंगराग लगाये हुए विभ्रमवती हाथी-दांत से बनी हई गडिया के समान शोभित हो रही थी। सरस हरिचन्दन के विलेपन से युक्त कामलता स्वच्छ इन्द्रमनीलमणि से निर्मित गुड़िया के समान शोभित हो रही थी। उन दोनों को देखकर कुमार ने सोचा ओह ! इनकी आकृति कल्याणमय है, अंग प्रशस्त हैं, सौन्दर्य निष्कलंक है, छवि विशुद्ध है, मूर्ति शान्त है, लक्षण सुन्दर हैं, निष्पाप धैर्य है, विनय का मार्ग योग्य है अतः इन दोनों को पात्र होना चाहिए । इसी बीच पाणिग्रहण हुआ, अग्नि जलाई गयी, यथायोग्य कार्य किये गये, मण्डल घुमाये गये (फेरे हुए), लोगों का आदर किया गया, महादान दिया गया, ईप्सित वस्तु के दान की घोषणा की गयी, विवाह-यज्ञ पूरा हुआ, शारीरिक क्रियाएँ की । दिन ढल गया, सूर्य ठण्डा पड़ गया। किरणें लुप्त हुई, सन्ध्या आयी, आकाश का आँगन स्वर्ण रस से रंजित हो गया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450