Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 378
________________ [समराइच्चकहा दिसा; समग्गओ चंदो, उल्लसिया नहसिरी, उवारूढो पओसो। एत्थंतरम्मि समं असोयाईहि विरायंतमणिपदीवं संगयं कुसुमोवयारेण सेवियं भमरावलीए पलंबमाण वंपयदाम वासियं पडवासेहिं संगयं पवरसयणीएण वियंभमाणसुरहिधूवं विहूसियं सपरिवाराहि वहूहि वासभवण मइयओ कुमारो। ससंभमाहिं अब्भुट्टिओ वहहिं । निसण्णो सयणीए। जहारहं च निसण्णा असोयाई वयंसया । उवविट्ठा सप्तयपोट्टसन्निहे चित्तावडिमसूरयम्मि विन्भमवई कामलया य । कुंदलयामाणिणीपमुहो तेसि सहियणो जहारुहं । नवरं विन्भमवईए कुंदलया कामलयाए य माणिणी सन्निहाणे उवविढाओ । इंगियागारकुसलाहिं मुणियकालकायव्वयाहिं उवणीयमेयाहिं कुमारस्स तंबोलं, समप्पिया य कुंदलयाए वउलकुसुममाला। भणियं च णाए-- कुमार, अच्चताणुरायओ सहत्थगुत्था खु एसा तुह पिययमाए त्ति । भणिऊण समप्पिया कुमारस्स। पडिच्छिया य तेणं । माणिणीए वि उवणीयं माहवीकुसुमदामं । भणियं च णाए-कुमार, एयं पि एवं चेव; ता निहेउ एयाई जहाजोयं कुमारो, करेउ एयासि सफलमणुरायं ति। कुमारेण भणियं उल्लसिता नभ:श्रीः, उप रूढ: प्रदोषः । अत्रान्तरे सममशोकादिभिविराजमणिप्रदीपं संगतं कुसुमोपचारेण सेवितं भ्रमरावल्या, प्रलम्बमानचम्पकदाम वासितं पटवासैः संगतं प्रवरशयनीयेन विज़म्भमाण सुरभिधूपं विभूषितं सपरिवाराभ्यां वधूभ्यां वासभवनं गतः कुमारः। ससम्भ्रमाभ्यामभ्युत्थितो वधूभ्याम् । निषण्णः शयनोये । यथार्ह च निषण्णा अशोकादयो वयस्याः । उपविष्टा शशकोदरसन्निभे चित्रपटीमसूरके विभ्रमवती कामलता च । कुन्दलतामानिनीप्रमुखस्तयोः सखीजनो यथार्हम । नवरं विभ्रमवत्याः कुन्दलता कामलतायाश्च मानिनी सन्निधाने उपविष्टे । इङ्गिताकारकुशलाभ्यां ज्ञातकालकर्तव्याभ्यामुपनीतमेताभ्यां कुमारस्य ताम्बूलम , समपिता च कुन्दलतया बकुलकुसुममाला। भणितं च तया-कुमार ! अत्यन्तानुरागतः स्वहस्तग्रथिता खल्वेषा तव प्रियतमयेति । भणित्वा समर्पिता कुमारस्य । प्रतीप्सिता च तेन । मानिन्याऽपि उपनीतं माधवीक सुमदाम । भणितं च तया-कुमार ! एतदप्येवमेव, ततो निदधातु एते यथायोगं कुमारः, करोत्वे तयोः सफल मनुराग पूर्व दिशा खुली, चन्द्रमा उदित हुआ, आकाशरूपी लक्ष्मी शोभायमान हुई, रात्रि का प्रथम प्रहर उत्पन्न हुआ। इसी बीच अशोकादि (मित्रों) के साथ कुमार शयनगृह गया। वह शयनगृह मणियों के दीपकों से सुशोभित हो रहा था, फूलों की सजावट से युक्त था, भ्रमरों की पंक्ति से सेवित था। वहाँ चम्पे की मालाएं लटक रही थीं। वह सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित था। उत्कृष्ट शय्या से युक्त था । सुगन्धित धूप वहाँ बढ़ रही थी तथा सपरिवार दोनों वधुओं से विभूषित था। शीघ्र ही दोनों वधुएं उठ गयीं। कुमार शय्या पर बैठा। यथायोग्य स्थान पर अशोकादि मित्र बैठे । चन्द्रमा के समान चित्रपट वाले गद्दे पर विभ्रमवती और कामलता बैठीं। कुन्दलता और मानिनी प्रमुख उन दोनों की सखियाँ यथायोग्य स्थानों पर बैठीं। विभ्रमवती के पास केवल कुन्दलता और कामलता के पास मानिनी बैठीं। इशारे और संकेत में कुशल ये दोनों कर्तव्य का समय जानकर कुमार को पान लायीं और कुन्दलता ने बकुल के फूलों की माला समर्पित की और उसने कहा- 'कुमार! अत्यन्त अनुराग से आपकी प्रियतमा ने इसे अपने हाथ से गूंथा है'-कहकर कुमार को समर्पित की। कुमार ने स्वीकार कर ली। मानिनी भी माधवी पुष्पों की माला लायी और उसने कहा-'कुमार ! यह भी इसी प्रकार की है। अतः कुमार इन दोनों को यथायोग्य धारण करें। इन दोनों के अनुराग को सफल करें।' कुमार ने कहा-'इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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