Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 382
________________ ८३२ [समराइच्चकहा कया सरीरदिई । निग्गओ वच्चहराओ, ठिओ रईए सह चित्तविणोएण । अइक्कतो वासरो। ठिओ अस्थाइयाए। एत्यंतरम्मि निरूवाविओ सुहंकरो रईए। न दिट्ठो य तहियं भणियं च णाए-हला जालिणि, कहं पुण सो भविस्सइ । तीए भणियं -देवि, भयाहिहूओ नणं पवाहिऊण अप्पाणयं वच्चफूवे मओ भविस्सइ । रईए भणियं- एवमेयं, कहमन्नहा अदंसणं ति । अवगया तच्चिता। इओ य सो सुहंकरो तम्मि वच्चकूवे तहादुक्खपीडिओ भवियव्वयानिओएण विइतकम्मवसवत्ती असुचिरसपाणभोयणो गमिऊण कंचि कालं विसोहणनिमित्तं फोडिए वच्चहरए असुइनिग्गमणमग्गेण वावन्नदेहच्छवी पणटुनहरोमो निग्गओ रयणीए । परखालिओ कहंचि अप्पा । महया परिकि लेसेण गओ नियया वणं । 'को एसो अमाणुसो' ति भीओ से परियणो। भणियं सुहंकरेण-- मा बीहेह. सुहंकरो अहं । विमलमइणा भणियं-पुत्त, कि तए कयं, जेण ईइसो जाओ; किं वा तुज्झ विमोक्खणं कीरउ । सुहंकरेण भणियं-ताय, अलं मझ मरणासंकाए। सो च्चेव अहं । तं च कयं, जेण ईइसो जाओ म्हि; तं साहेमि मंदभग्गो तायस्स। किं तु विवित्तमाइसउ ताओ। अवगओ परियणो । 'न कृता शरीरस्थितिः। निर्गतो व!गहात, स्थितो रत्या सह चित्रविनोदेन । अतिक्रान्तो वासरः स्थित आस्थानिकायाम् । अत्रान्तरे निरूपितः शुभकरो रत्या। न दृष्टश्च तत्र। भणितं च तयाहला जालिनि ! कथं पुनः स भविष्यति। तया भणितम् -- देवि ! भयाभिभूतो नूनं प्रवाह्यात्मानं वर्चःकूपे मतो भविष्यति । ररया भणितम्-एवमेतत्, कथमन्यथाऽदर्शन मिति । अपगता तच्चिन्ता। इतश्च स शभङ्करस्तस्मिन् वर्चःकूपे तथा दुःखपीडितो भवितव्यतानियोगेन विचित्रकर्मवशवर्ती अशुचिरसपानभोजनो गमयित्वा कञ्चित् कालं विशोधननिमित्तं स्फोटिते वक़गृहेऽशुचिनिर्गमनमार्गेण व्यापन्नदेहच्छवि: प्रनष्टनखरोमा निर्गतो रजन्यम्। प्रक्षालित: कचिदात्मा। महता परिक्लेशेन गतो निजभवनम् । 'क एषोऽपानुषः' इति भीतस्तस्य परिजनः। भणितं शभङ्करणमा बिभीत, शुभङ्करोऽहम् । विमलमतिना भणितम्-पुत्र ! किं त्वया कृतम्, येनेदृशो जातः, किं वा तव विमोक्षणं क्रियताम् । शुभकरण भणितम् - तात ! अलं मम मरणःशङ्कया। स एवाहम् । तच्च कृतं येनेदृशो जातोऽस्मि, तत् कथयामि मन्दभाग्यस्तातस्य, किन्तु विविक्तमादिशतु तातः । गया। इधर वह राजा अंगरक्षकों से शोधित शौचालय में प्रविष्ट हुआ । शारीरिक क्रिया की। शौचालय से निकल आया, रति के साथ अनेक प्रकार के विनोद करता हुआ बैठा। दिन बीत गया। राजा राजसभा में बैठा। इसी बीच रति ने शुभंकर को देखा। वहाँ दिखाई नहीं दिया । उसने कहा-'सखी जालिनी ! उसका क्या हुआ होगा?' उसने कहा-'महारानी! भय से अभिभूत होकर निश्चित रूप से अपने को मोरी में गिराकर मर गया होगा।' रति ने कहा-'यही बात है, नहीं तो दिखाई क्यों नहीं दिया ?' उसकी चिन्ता दूर हुई। इधर वह शुभंकर उस शौचालय के गडढे में उस प्रकार के दु:ख से पीड़ित होकर होनहार के कारण विचित्र कर्मों के वश होकर, अपवित्र का रसपान कर कुछ समय बिताकर धोने के लिए शौचालय के खुलने पर अशुचि के निकलने के मार्ग से रात्रि में निकल गया। उसके शरीर की प्रभा मारी गयी (नष्ट हो गयी), नाखून और रोम नष्ट हो गये । किसी प्रकार अपने को धोया। बड़े क्लेश से अपने भवन गया। 'यह कौन अमानुष है'-इस प्रकार उसके परिजन भयभीत, हुए। शुभंकर ने कहा - 'मत डरो, मैं शुभंकर हूँ।' विमलमति ने कहा- 'पुत्र ! तुमने क्या किया जिससे ऐसे हो गए ? अथवा तुम्हें छोड़ दें ?' शुभंकर ने कहा-'पिता जी ! मेरे मरण की शंका मत करो। मैं वही हैं। वह किया, जिससे ऐसा हो गया हूं, मन्दभाग्य मैं वह सब पिताजी से कहता हूँ, किन्तु पिताजी ! एकान्त में मिलने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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