Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 380
________________ [ समराइच्चकहा मायणिऊण हरिसविसायसारं 'हंत किमयमतिगंभीरं मंतियं'ति चितिऊण वामचलणंगुट्टयालिहिमणिकोट्टिमं सविसेसंबंधुराहि न जंपियमिमोहिं । कुंदलयाए भणियं- कुमार, अमणमाणीहिं पि ature साहियमिमीहि कुमारस्स अहिप्पेयमिमिणा संभ्रमेण दिव्वबुद्धीए अवहारेउ कुमारो । कुमारेण भणियं - भोईओ, जइ एवं ता सुणेह जस्स जं पइ अहियपवत्तणिच्छा, तस्स तं पड़ कोइसो अणुराओ ति । माणिणीए भणियं - कुमार, कहमियमहियं ति नावगच्छामि । कुमारेण भणियं -- भोइ, सुण एत्थ नायं । ८३० after armsafare मयणउरं नाम नयरं । तत्थ पज्जुन्नाहिहाणो राया । रई नाम से भारिया । ताणं च विसयसुहमणुहवंताण अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया य गओ राया आसवाहणियाए । रईए य वित्तनिज्जूहट्टियाए दिसावलोयणसमयम्मि दिट्ठो रायमग्गवत्ती देवयाययणपत्थिओ विमलम सत्यवापुतो सुहंकरो नाम सेट्ठी जुवाणओ त्ति । तं च दट्ठूण अविवेयसामत्थओ अन्भत्थयाए गामधम्माण समुत्पन्नो तीए तस्सोवरि अहिलासो । पुलइओ सविब्भमं । एसा विय समागया हर्षविषादसारं 'हन्त किमेतदतिगम्भीरं मन्त्रितम्' इति चिन्तयित्वा वामचरणाङ्गुष्ठलिखितमणिकुट्टिमं सविशेषबन्धुराभ्यां न जल्पितमाभ्याम् । कुन्दलतया भणितम् कुमार ! अभणन्तीभ्यामपि वाचा कथितमाभ्यां कुमारस्याभिप्रेतमनेन सम्भ्रमेण दिव्पबुद्ध्याऽवधारयतु कुमारः । कुमारेण भणितम् - भवत्यौ ! यद्येवं ततः शृणुतम् । यस्यायं प्रत्यहितप्रवर्तनेच्छा तस्य तं प्रति कीदृशोऽनुराग इति । मानिन्या भणितम् - कुमार ! कथमिदमहितमिति नावगच्छामि । कुमारेण भणितम् - भवति ! शृण्वत्र ज्ञातम् । अस्ति कामरूपविषये मदनपुरं नाम नगरम् । तत्र प्रद्युम्नाभिधानो राजा - रतिर्नाम तस्य भार्या । तयोश्च विषयसुखमनुभवतोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च गतो राजाश्ववाहनिकया । रत्या च विचित्रनिर्यूहस्थितया दिगवलोकनसमये दृष्ये राजमार्गवर्ती देवतायतनप्रस्थितो विमलमति सार्थवाहपुत्रः शुभङ्करो नाम श्रेष्ठी युवेति । तं च दृष्ट्वाऽविवेकसामर्थ्यतोऽभ्यस्ततया ग्राम्यधर्माणां समुत्पन्नस्तस्यास्तस्योपर्यभिलाषः । दृष्टः सविभ्रमम् । एषाऽपि च समागता तस्य दृष्टि और विषाद से युक्त होकर 'हाय, यह क्या गम्भीर बात पूछी' - ऐसा सोचकर बायें चरण के अँगूठे से माणजटित फर्श को कुरेदते हुए विशेष रूप से झुकी हुई ये दोनों नहीं बोलीं । कुन्दलता ने कहा- 'कुमार ! वाणी से न कहती हुई भी इन दोनों ने कुमार के अभिप्रेत को घबड़ाहट से कह दिया है। दिव्यबुद्धि से कुमार जान लें ।' कुमार ने कहा – 'यदि ऐसा है तो आप दोनों सुनिए । जिसकी जिसको अहित में प्रवृत्त कराने की इच्छा हो उसका उसके प्रति अनुराग कैसा ?' मानिनी ने कहा- ' कुमार ! यहाँ अहित कैसा ? मैं नहीं समझी ।' कुमार ने कहा - 'आप इस विषय में जानी हुई बात सुनिए । कामरूप देश में मदनपुर नाम का नगर था। वहाँ पर प्रद्युम्न नाम का राजा था। उसकी रति नाम की पत्नी थी। उन दोनों का विषय-सुख का अनुभव करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार राजा अश्ववाहनिका ( इक्के) से गया । विचित्र दरवाजे में खड़ी हुई रति ने दिशाओं को देखते हुए सड़क पर चलकर देवमन्दिर की ओर प्रस्थान करते हुए विमलमति सार्थवाह (व्यापारी) के पुत्र शुभंकर नामक युवा सेठ को देखा । उसे देखकर अविवेक की सामर्थ्य तथा विषयाभिलाओं के अभ्यास से उसकी उस पर अभिलाषा हो गयी। सविलास देखा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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