Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 376
________________ [ समराइच्चकहा अमच्या आणवेंति, संपन्नमेवेयं । भणिओ महापीलुवई - भद्द गर्योचतामणि, पयडेहि वेयंडे, संपाडेहि परियणस्स, संजतेहि वारुयाओ, करावेहि सव्वमुचियं । तेण भणियं-जं अमच्या आणवेंति, न एत्थ विक्खेवो । भणिओ महासवई - भद्द केकाणधूलि, गच्छ निरूवेहि वंदुराओ, भूसेहि तुरए, पेसेहि उचियाण, ठावेहि नरिदगोयरे । तेण भणियं -- जं अमच्चा आणवेंति, सिद्धमेवेयं । एवं च आएससमणंतरं जाव एवं संपज्जइ, ताव अवरेहि महया रिद्धिसमुवएण बहुयाजन्नावासे संपाडियं उचियकरणिज्जं निव्वत्तिओ महाउल्लोवो, ऊसियाइं मणितोरणाई, निबद्धा कंचणधया, ठविया कणयवेई, कया कंच मंगलकलसा, संजोइयं ण्हवणयं, पउत्तो कुलविही, महावियाओ वहुयाओ, पूयावियाओ मयणं, करावियाओ ति, भूसावियाओ मणहरं । एत्थंतरम्मि 'आसन्नं पसत्थं लग्गं सि पहाणजोहसियवयणाओ संपाडियसयलकुलविही पूजिऊण कुलदेवयाओ वंदिऊण गुरुयणं संमाणिकण मित्ते पेच्छिऊण मंगलाणि विवाहगमण निमित्तं समं असोयाईहिं समारूढो रहवरं कुमारो। उट्टिओ आनंदकलयलो, पहयाई मंगलतूराई, पणच्चियाओ वारविलासिणीओ, पगाइयाइं मंगल मंतेउराई, चलिया महापपति: ( महाहस्तिपकः ) - भद्र गजचिन्तामणे ! प्रकटय गजान्, सम्पादय परिजनस्य, संयात्रय वारुकाः (हस्तीनीः), कारय सर्वमुचितम् । तेन भणितम् - यदमात्या आज्ञापयन्ति, नात्र विक्षेपः ( विलम्बः) । भणितो महाश्वपतिः भद्र केकाणधूले ! ( अश्वचूडामणे ? ) गच्छ, निरूपय मन्दुराः (वाजिशाला:), भूषय तुरगान् प्रेषयोचितानाम्, स्थापय नरेन्द्रगोचरान् । तेन भणितम् - यदमात्या आज्ञापयन्ति, सिद्धमेवैतद् । एवं चादेशसमनन्तरं यावदेतत् सम्पद्यते तावदपरैर्महता ऋद्धिसमुदयेन वधुकाजन्यावासे सम्पादितमुचितकरणीयम् । निर्वर्तितो महोत्लोचः, उत्सितानि (बद्धानि) मणितोरणानि, निबद्धाः काञ्चनध्वजाः, स्थापिता कनकवेदिः कृताः काञ्चनमङ्गलकलशाः, संयोजितं स्नपनकम्, प्रयुक्तः कुलविधि, स्नपिते बधुके, पूजिते मदनम् कारिते रतिम् भूषिते मनोहरम् । अत्रान्तरे 'आसन्नं प्रशस्तं लग्नम्' इति प्रधानज्योतिषिकवचनाद् सम्पादितसकल कुल विधिः पूजयित्वा कुलदेवता वन्दित्वा गुरुजनं सम्मान्य मित्राणि प्रेक्ष्य मङ्गलानि विवागमननिमित्तं सममशोकादिभिः समारूढो रथवरं कुमारः । उत्थित आनन्दकलकलः, प्रहतानि मङ्गलतूर्याणि, प्रननिता ८२६ प्रधानपुरुषों को दो श्रेष्ठ रथों को निकालो, अनेक प्रकार की शोभा से युक्त योद्धाओं को नियुक्त करो।' उसने कहा - 'जो मन्त्रिगण आज्ञा दें। ये सब किया ही जा चुका है।' प्रधान महावत ( महा पिलुपति ) से कहा- 'भद्र गजचिन्तामणि ! हाथियों को निकालो, परिजनों को दिखाओ, हथनियों को तैयार करो, सब ठीक करो ।' उसने कहा - ' जो मन्त्रिगण आज्ञा दें। देर नहीं है ।' महाश्वपति ( प्रधान घुड़सवार) से कहा -- ' भद्र अश्वचूडामणि ( केकाणधूलि), जाओ, घुड़शालाओं को देखो, घोड़ों को विभूषित करो, योग्य घोड़ों को भेजो, राजमार्ग पर खड़ा करो ।' उसने कहा - 'जो आमात्य आज्ञा दें। यह किया ही जा चुका।' इस प्रकार के आदेश के बाद जब यह कार्य पूरा किया जाने लगा तब दूसरे लोगों ने बड़ी विभूति के साथ वधू के जनवास में योग्य कार्यों को कराया। बहुत बड़ी चांदनी लगायी, मणिनिर्मित तोरण बांधे गये, सोने की ध्वजाएं बाँधी गयीं, स्वर्णवेदी रखी गयीं, सोने के मंगलकलश स्थापित किये गये, स्नान का जल लाया गया, कुलविधि की गयी, दोनों बधुओं ने स्नान किया, कामदेव की पूजा की, रति की पूजा की, मनोहर आभूषण पहिने । इसी बीच शुभ लग्न (घड़ी) आ गयीइस प्रकार प्रधान ज्योतिषी के कथनानुसार समस्त कुलाचार को कर, कुलदेवियों की पूजा कर, गुरुजनों की वन्दना कर, मित्रों का सम्मान कर, मांगलिक वस्तुओं को देखकर, विवाह के निमित्त जाने के लिए अशोक आदि के साथ कुमार श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हुआ । आनन्द की ध्वनि उठी, मंगल बाजे बजाये गये, वेश्याओं ने नृत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450