Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 347
________________ नवमो भवो ] संरक्खण सुद्धभावओ विसुद्धदाणाइकिरियापसिद्धीए य महंतो धम्मो । अणुरत्तदारासुद्धसुए हितो य तथाणुबंध फलसारा संपज्जति अत्यकामा विवज्जए उण तिन्हं पि विवज्जओ । जओ अणाराहणेण दारचित्तस्स न परमत्थओ सरकखणं, असंरक्खणे य तस्स असुद्धसुयभावओ तेस निरयाइजोयणाए विसुद्ध दाणाइकिरियाभावओ महंतो अहम्मो, अणणरत्तदाराविसुद्धसुरहितोय पणस्संति अत्थकामा, नय कामसत्यभणियपओयपरिन्नाणरहिओ नियमेण सदारचित्तं आराहेइ ति । एएण कारणेणं विग्गसाहणपरं कामसत्थं ति । ललियंगएण भणियं - सोहणमिणं, न एत्थ कोइ दोसो । एयं तु सोहणपरं, घम्मत्थाण साफल्यानिदरिसणपरं ति; न जओ कामाभावे धम्मत्थाणमन्नं फलं न य निष्फलत्ते तेसि पुरिसत्थया । न य मोक्खफल साहगत्तणेणं सफला इमे, जओ अलोइओ मोक्खो समाहिभावणाभाणपगरिसफलो य । तम्हा धम्मत्थाण सापल्लयानिदरिसणपरमेयं ति । एवं चैव सोहणपरं । असोएण भणियं - कुमारो एत्थ पमाणं ति । कामंकुरेण भणियं - सुट्ठ पमाणं । धनसंरक्षणेन शुद्धसुतभावतो विशुद्धदानादिक्रिया प्रसिद्धयां च महान् धर्मः । अनुरक्तदारशुद्धसुताभ्यां च तदनुबन्धफलसारौ सम्पद्यतेऽर्थकामौ विपर्यये पुनस्त्रयाणामपि विपर्ययः । यतोऽनाराधनेन दारचित्तस्य न परमार्थतः संरक्षणम्, असंरक्षणे च तस्याशुद्धसुतभावतस्तेषां निरयादियोजनया विशुद्धदानादिक्रियाभावतो महान् अधर्मः अननुरक्तदाराविशुद्धसुताभ्यां च प्रणश्यतोऽर्थकामौ न च कामशास्त्रभणितप्रयोगपरिज्ञानरहितो नियमेन स्वदारचित्तमाराधयतीति । एतेन कारणेन त्रिवर्गसाधनपरं कामशास्त्रमिति । ललिताङ्गेन भणितम् - शोभनमिदम्, नात्र कोऽपि दोषः । एतत्तु शोभनतरम्, धर्मार्थयोः साफल्यता निदर्शनपरमिति, न यतः कामाभावे धर्मार्थयोरन्यत् फलम्, न च निष्फलत्वे तयोः पुरुषार्थता । न च मोक्षफलसाधकत्वेन सफलाविमौ यतोऽलौकिको मोक्षः समाधिभावनाध्यानप्रकर्षफलश्च । तस्माद् धर्मार्थयोः साफल्यतानिदर्शनपरमेतदिति । एवमेव शोभनतरमिति । अशोकेन भणितम् - कुमारोऽत्र प्रमाणमिति । कामाङकुरेण भणितम्- सुष्ठु प्रमाणम् । ललिताङ्गकेन भणितम् -- यद्यवं ततः करोतु प्रसादं कुमारः, कथयतु किमत्र शोभनतरमिति । कुमारेण भणितम् - ७६७ को जाननेवाले पुरुष के अपनी स्त्री के चित्त की आराधना और उसके संरक्षण से शुद्ध पुत्र की भावना करने और विशुद्ध दानादि क्रियाओं की प्रसिद्धि से महान् धर्म होता है । स्त्री और शुद्ध (सुसंस्कृत ) पुत्र में अनुरक्त होने से तत्सम्बन्धी अनुबंध ही है फल और सार जिनमें ऐसे अर्थ और काम दोनों को ही सम्पादित करते हैं। विपरीत स्थिति में धर्म, अर्थ और काम तीनों की विपरीतता होती है; क्योंकि स्त्री के चित्त की आराधना न करने से परमार्थ रूप से उसका संरक्षण नहीं होता । परमार्थतः (स्त्री के चित्त का) संरक्षण न होने पर अशुद्ध सुतभाव से उनके नरकादि का संसर्ग होता है और उससे विशुद्ध दानादि क्रियाओं का अभाव होने से महान् अधर्म होता है । विशुद्ध रूप से स्त्री और पुत्र में अनुरक्त न होनेवाले के अर्थ और काम दोनों ही नष्ट हो जाते हैं, कामशास्त्र में कथित प्रयोग के ज्ञान से रहित व्यक्ति नियम से अपनी स्त्री के चित्त की आराधना नहीं करता है। इस तरह कामशास्त्र धर्म, अर्थ और काम का साधन करने में सक्षम है।' ललितांग ने कहा- 'यह ठीक है, यहाँ कोई दोष नहीं है । यह 'बहुत अच्छा है, धर्म और अर्थ की सफलता का द्योतन करने में समर्थ है, क्योंकि काम के अभाव में धर्म और अर्थ का अन्य कोई फल नहीं है । धर्म और अर्थ के निष्फल होने पर पुरुषार्थ भी नहीं रहता । मोक्षफल के साधक होने से धर्म और अर्थ सफल हैं, ऐसा भी नहीं है; क्योंकि मोक्ष अलौकिक है और समाधि - भावना तथा ध्यान की चरम सीमा का फल । अतः धर्म और अर्थ की सफलता का यह निदर्शन ( दृष्टान्त ) है । यही शोभनतर है । अशोक ने कहा - ' इस विषय में कुमार प्रमाण हैं ।' कामांकुर ने कहा- 'भलीभाँति प्रमाण हैं ।' ललितांग ने तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450