Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 356
________________ ८०६ [समराइच्चकहा उवागच्छए मेत्ति पयट्टए उवयारे, मोयावए दुहाओ, जणेइ गोरव, वड्ढेइ माणं, करेइ संपयं, विहेइ सोक्खं, न परिच्चयइ आवयाए; एस एयारिसो जोक्कारमेतेण सेवियापरिच्चाई नाम उत्तिममित्तो ति। एवंघट्टिए समाणे सुपुरिसेणालोचिऊण नियमईए सव्वहा उत्तिममित्तवच्छलेण होयत्वं ति। कामंकुरेण भणियं-भो को उण इहाहिप्पाओ। पसिद्धमेवेयं, जं जहन्नमज्झिमे चइऊण उत्तिमो सेविज्जइ । कुमारेण भणियं- नणु एवमेव एत्थाहिप्पाओ, जं जहन्नमज्झिमे चइऊण उत्तिमो सेविज्जइ त्ति । ललियंगएण भणियं-भो न एयमुज्जुयं, गंभीरं खु एयं न विसेसओ अविवरियं जाणीयइ । ता विवरेहि संपयं, के उण इमे तिणि मित्ता। कुमारेण भणियं - भो जइ नावगयं तुम्हाणं, ता सुणह संपयं । एत्थ खलु परमत्थमित्ते पडुच्च पसिणो उत्तरं च जुज्जइ त्ति जंपियं मए। पसिद्धं तु लोइयं, को वा सचेयणो तयत्थं न याणइ । ता इमे मित्ता देहसयणधम्मा। तत्थ जहन्नमित्तो देहो, मज्झिमो सयणो, उत्तमो धम्मो त्ति । जेण देहो तहा तहोवचरिज्जमाणो वि अणसमयमेव दंसेइ वियारे, अहियपक्खसंगयं अणुयत्तइ जरं, चरिमावयाए य उज्झइ निरालंबं ति; एस जहन्नमित्तो। मैत्रीम, प्रवर्तते उपकारे, मोचयति दुःखात्, जनयति गौरवम्, वर्धयति मानम, करोति सम्पदम, विदधाति सौख्यम्, न परित्यजत्यापदि, एष एतादृशो जयकारमात्रेण सेवितापरित्यागी नामोत्तममित्रमिति । एवमवस्थिते सति सुपुरुषणालोच्य निजमत्या सर्वथोत्तमित्रवत्सलेन भवितव्यमिति । कामाङ करेण भणितम्-भो कः पुनरिहाभिप्रायः। प्रसिद्धमेवैतत्, यद् जघन्यमध्यमौ त्यक्त्वोत्तमः सेव्यो । कमारेण भणितम्-नन्वेवमेवात्राभिप्रायः, यद् जघन्यमध्यमौ त्यक्त्वोत्तमः सेव्यते इति । ललिताङ्गेन भणितम् –भो ! नैतद् ऋजुकम्, गम्भीरं खल्वेतद्, न विशेषतोऽविवृतं ज्ञायते । ततो विवृण साम्प्रतम्, कानि पुनरिमानि नीणि मित्राणि। कुमारेण भणितम्-भो ! यदि नावगतं युष्माकम्, ततः शृणुत साम्प्रतम् । अत्र खलु परमार्थमित्राणि प्रतीत्य प्रश्न उत्तरं च यज्यते इति जल्पितं मया । प्रसिद्धं तु लौकिकम्, को वा सचेतनस्तदर्थं न जानाति । तत इमानि मित्राणि देहस्वजनधर्माः । तत्र जघन्यमित्रं देहः, मध्यमं स्वजनः, उत्तमं (मित्र) धर्म इति । येन देहस्तथा तथोपचर्यमाणोऽपि अनुसमयमेव दर्शयति विकारान्, अधिकपक्षसङ्गतमनुवर्तते जराम्, चरमापदि प्रयत्न के ही दिखाई देता है, बिना पूछे ही अच्छे कार्यों का आदर करता है, मैत्री के समीप आता है, उपकार में प्रवृत्ति लगाता है, दुःख से छुड़ाता है, गौरव को उत्पन्न करता है, मान को बढ़ाता है, सम्पदा को करता है, सुख को प्रदान करता और आपत्ति में त्यागता नहीं है - यह इस प्रकार का जयकार मात्र से सेवित त्याग न करनेवाला उत्तम मित्र है । ऐसा स्थित होने पर सुपुरुष को अपनी बुद्धि से विचार कर सर्वथा उत्तममित्र से प्रेम करनेवाला होना चाहिए । कामांकुर ने कहा -'हे मित्र ! यहाँ क्या अभिप्राय है, यह प्रसिद्ध ही है कि जघन्य और मध्यम को छोडकर उत्तम का सेवन किया जाता है।' कुमार ने कहा निश्चित रूप से यही यहाँ अभिप्राय है कि जघन्य और मध्यम को छोड़ कर उत्तम का सेवन किया जाता है।' ललितांग ने कहा-'अरे यह सरल नहीं है, यह गम्भीर है, विशेष रूप से ढंका हुआ नहीं जाना जाता है। अतः इस समय वर्णन करें, स्पष्ट करें, ये कोन तीन मित्र हैं ?' कुमार ने कहा-'हे मित्रो ! यदि तुम लोगों ने नहीं जाना तो अब सुनो । यहाँ परमार्थ मित्र की अपेक्षा प्रश्त करना और उत्तर देना ठीक है, ऐसा मैंने कहा था। लौकिक तो प्रसिद्ध है। कौन सचेतन व्यक्ति उस अर्थ को नहीं जानता है ? तो ये मित्र देह, स्वजन और धर्म हैं । उनमें जघन्यमित्र देह है, मध्यममित्र स्वजन है, उत्तममित्र धर्म ह; क्योंकि देह इस प्रकार सेवा किये जाने पर भी प्रति समय विकारों को दर्शाता है, अधिक पक्षों से युक्त होने पर बुढ़ापे का अनुसरण करता है, चरम आपत्ति में बिना सहारे के छोड़ जाता है, (अतः) यह जघन्यमित्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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