Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 372
________________ ५२२ [समराइचकहा कन्नयाणं आणाए गुरुपणस्त अवस्सं कुमारेण इत्थसंपत्तीए आणं दियवाओ। एवं च कए समाणे तस्स राइणो विसिटुलोयस्स कन्नयाणं गरुसयणस्स य नियमेण निव्वुई संजायइ । एयमायण्णिऊण चितियं कुमारेण-अहो न सोहणमिणं । दुक्खहेयवो संजोया, निओयवयणं च एयं, अम्भत्थिओ य पुवि, तं पि मन्ने इमं चेव । अलंघणीया गुरवो, 'इटुत्थसंपत्तीए नियमेण निव्वुइ' त्ति सोहणा य वाणी, न यावि भावओ गुरुआणापराण संजायए असोहणं। एवमभिचितयंतो सासंकेण विय भणिओ महाराएण - वच्छ, अलमेत्थ चिताए, सुमरेहि मम पत्थणं । ता सा चेव एसा । न एत्थ भवओ कल्लाणपरंपरं मोत्तूण अन्नारिसो परिणामो । अओ अवस्समेव कायव्वं एवं कुमारेण । तो एयमायण्णिय 'अहो सोहणपरा वाणि' ति हरिसियमणेण जंपियं कुमारेण . ताय, जं तुम्भे आणवेह । एवं सोऊण हरिसिओ राया। भणियं च णेण - साहु वच्छ साहु, उचिओ ते विवेओ, सोहणा गुरुभत्ती, भायणं तुम कल्लाणाणं । अन्नं च, जाणामि अहं भवओ विसुद्धधम्मपक्खवायं, जुत्तो य एसो सयाण । असारो संसारो, नियाणं निव्वेयस्स; तहावि कुसलेण अणुयत्तियव्वो कमारेणेष्टार्थसम्पत्त्याऽऽनन्दयितव्ये । एवं च कृते सति तस्य राज्ञो विशिष्टलोकस्य कन्ययोर्गुरुजनस्य च नियमेन निर्वतिः सजायते । एवमाकर्ण्य चिन्तितं कुमारेण- अहो न शोभनमिदम् । दुःखहेतवः संयोगाः, नियोगवचनं चैतद्, अयथितश्च पूर्वम्, तदपि मन्ये इदमेव । अलङ्घनीया गरवः, इष्टार्थसम्पत्त्या नियमेन निर्वृतिः' इति शोभना च वाणी, न चापि भावतो गुर्वाज्ञापराणां सजायतेऽशोभनम् । एवमभिचिन्तयन् साशङ्केनेव भणितो महाराजेन-वत्स ! अलमत्र चिन्तया, स्मर मम प्रार्थनाम् । ततः सैवैषा । नात्र भवतः कल्याणपरम्परां मुक्त्वाऽन्यादृशः परिणामः । अतोऽवश्यमेव कर्तव्यमेतत् कुमारेण । तत एतदाकर्ण्य 'अहो शोभनतरा वाणी' इति हर्षितमनसा जल्पितं कुमारेण -तात ! यद् यूयमाज्ञापयत । एवं श्रुत्वा हर्षितो राजा । भणितं च तेन-साधु, उचितस्ते विवेकः, शोभना गुरुभक्तिः; भाजनं त्वं कल्याणानाम्। अन्यच्च, जानाम्यहं भवतो विशुद्धधर्मपक्षपातम् युक्तश्चेष सताम् । असारः संसारः, निदानं निर्वेदस्य, तथापि कुशलेनानुवर्तितव्यो पदार्थों की प्राप्ति से इन दोनों को अवश्य ही आनन्दित करें। ऐसा करने पर उन राजा को, विशिष्ट लोगों को तथा कन्या के माता-पिता को अवश्य ही शान्ति उत्पन्न होगी।' यह सुनकर कुमार ने सोचा-ओह ! यह ठीक नहीं है। संयोग दुःख के कारण हैं और यह बन्धन का वचन है। पहले प्रार्थना की गयी थी, फिर भी इसे ही मानता हूँ। बड़ों के वचन अलंघनीय होते हैं, 'इष्ट की प्राप्ति से निश्चित रूप से शान्ति होती है, यह वाणी ठीक है । भावपूर्वक बड़ों की आज्ञा में तत्पर लोगों का बुरा नहीं होता है, ऐसा सोचते समय मानो आशंका से मुक्त होकर महाराज ने कहा-'वत्स । चिन्ता मत करो, मेरी प्रार्थना का स्मरण करो। अतः यह वही है । यहाँ तुम्हारे कल्याण की परम्परा को छोड़कर अन्य प्रकार का परिणाम नहीं है, अतः कुमार को इसे अवश्य करना चाहिए । अनन्तर इसे सुनकर -'ओह वाणी अधिक सुन्दर है' इस प्रकार हर्षित मन से कुमार ने कहा'पिताजी ! जो आप आज्ञा दें।' यह सुनकर राजा हर्षित हुआ और उसने कहा-'ठीक है, ठीक है, तुम्हारा विवेक उचित है, बड़ों के प्रति भक्ति अच्छी है, तुम कल्याणों के पात्र हो। दूसरी बात यह है कि मैं धर्म के प्रति तुम्हारा पक्षपात जानता हूँ। यह सज्जनों के लिए उचित है। संसार असार है, वैराग्य का कारण है, तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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