Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 371
________________ नवमौ भवो ] - तुम्भे आणवेह | राइणा भणियं वच्छ, एरिसो चेव तुमं ति, केवलं मम नेहो अवरभद्र । ता भणिस्सं अवसरेण; संपयं करेहि उचियं करणिज्जं । कुमारेण भणियं-जं गुरू आणवेद ति । पण मऊण सविषयं निग्गओ कुमारी, गओ निययगेहं कथं उचियकरणिज्जं । अइक्कंता कes दिया । अन्नया समं असोयाईहि धम्मकहावावडस्स नियभवणसेविणो विसुद्धभावस्स समागओ पडिहारो । भणियं च णेण – कुमार, महाराओ आणवेइ, जहा 'आगया एत्थ तुह माउलसयासाओ केणावि पण अमहिया महंतया; ता कुमारेण सिग्धमागतव्वं 'ति । 'जं गुरू आणवेइ' त्ति मणिऊण उओि कुमारी, गओ सह असोयाईह रायसमीवं । दिट्ठो राया । पणमिऊण उबविट्टो तयंतिए । भणिओ य राहणा - वच्छ, पेसियाओ तुह मामएणं महारायखग्गसेणेणं सबहुमाणं आसत्तवेणि (य) विसुद्धाओ नियसुयाओ विग्भमवइकामलयाहिहाणाओ जीवियाओ वि इट्ठयराओ सयंवराओ दुवे कन्याओ । एयाओ य बहुमाणेण तस्स राइणो अणुवत्तमाणेण विसिलोयमग्गं अणुराएण यद् यूयमाज्ञापयत । राज्ञा भणितम् - वत्स ! ईदृश एव त्वमिति, केवलं मम स्नेहोऽपराध्यति । ततो भणिष्याम्यवसरेण, साम्प्रतं कुरूचितं करणीयम् । कुमारेण भणितम् - यद् गुरुराज्ञापयतीति । प्रणम्य सविनयं निर्गतः कुमारः, गतो निजगेहम्, कृतमुचितकरणीयम् । अतिक्रान्ताः कतिचिद् दिवसाः । =२१ अन्यदा सममशोकादिभिर्धर्मकथाव्यापृतस्य निजभवन सेविनो विशुद्धभावस्य समागतः प्रतिहारः । भणितं च तेन कुमार ! महाराज आज्ञापयति, यथा 'आगता अत्र तव मातुलसकाशात् harपि प्रयोजनाभ्यधिका महान्तः, ततः कुमारेण शीघ्रमागन्तव्यम्' इति । 'यद् गुरुराज्ञापयति' इति भणित्वोत्थितः कुमारः । गतः सहाशोका दिभी राजसमीपम् । दृष्टो राजा । प्रणम्योपविष्टस्तदन्तिके । भणितश्च राज्ञा-वत्स ! प्रेषिते तव मामवेन महाराजखड्गसेनेन सबहुमानमासक्तवचनीयविशुद्धे निजसुते विभ्रमवतीकामलताभिधाने जीवितादपीष्टतरे स्वयंवरे द्व े कन्यके । एते च बहुमानेन तस्य राज्ञोऽनुवर्तमानेन विशिष्टलोकमार्गमनुरागेण कन्ययोराज्ञया गुरुजनस्यावश्यं - सब आज्ञा देंगे सर्वथा वही होगा ।' राजा ने कहा- 'वत्स ! तुम ऐसे ही हो, (अर्थात् तुमसे यही अपेक्षा थी) केवल मेरा स्नेह ही यहाँ अपराध कर रहा है। अतः अवसर पाकर कहूँगा । अब योग्य कार्यों को करो । कुमार ने कहा'पिताजी की जो आज्ञा ।' विनयपूर्वक प्रणाम कर कुमार निकल गया। अपने निवास गया, योग्य कार्यों को किया । कुछ दिन बीत गये । Jain Education International 1 एक बार जब कुमार अपने घर पर अशोक आदि (मित्रों) के साथ धर्मकथा में विशुद्ध भावों से लगा हुआ था तब प्रतीहार आया और उसने कहा- 'कुमार ! महाराज आज्ञा देते हैं कि तुम्हारे मामा के साथ किसी प्रयोजन से विशिष्ट लोग आये हैं, अत: कुमार शीघ्र आवें ।' 'पिताजी की जो आज्ञा' ऐसा कहकर कुमार उठा और अशोक आदि के साथ राजा के पास गया। राजा को देखा । (कुमार) प्रणाम कर उनके पास बैठ गया । राजा ने कहा - 'कुमार ! तुम्हारे मामा महाराज खड्गसेन ने आदरपूर्वक लोकापवाद से रहित विभ्रमवती और कामलता नामक, प्राणों से भी अधिक प्यारी, दो कन्याएँ स्वयंवर में भेजी हैं। उन महाराज के प्रति आदर ( एवं ) दोनों कन्याओं के विशिष्ट सांसारिक मार्ग में अनुवर्तित अनुराग से तथा बड़ों की आज्ञा से कुमार अवश्य ही इष्ट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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