Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 367
________________ नवमो भवो] ८१७ भावाण पहवंतीए वि मोत्तूण धम्मरसायणं इयमेवंविहं असमंजसं चेट्टियं ति । एवं च सोऊण 'अहो कुमारस्स विवेओ; महो परमत्थदरिसिया; न एत्थ किचि अन्नारिसं, केवलं पहवइ महामोहोति चितिऊण समं नयरिजणवएण संविग्गो सारही। भणियं च णेण-देव, साहु जंपियं देवेण। तहावि अणादिभवभत्था मोहवासणा न तीरए चइउंति। कुमारेण भणियं-अज्ज, एवं ववस्थिए अलं मोहवासणाए। दारुणविवाओ वाही रोदा य पावा जरा हवंति किलेपायाओ नियमेण पाणिणो; भणियमज्जेण, 'अस्थि य पांडवक्खो एयासि धम्मचरणं' ति । तो दिटुविवायाण वि न तम्मि जत्तो त्ति अउवा मोहवासणा। ____एत्थंतरम्मि दिट्ठो कुमारेण नाइदूरेण नीयमाणो समारोविओ जरखट्टाए समोत्थओ जुण्णवत्येण उक्खित्तो दीणपुरिसेहि सदुक्खकइवयबंधुसंगओ रुयमाणेण इत्थियाजणेण अवकंदमाणाए पत्तीए पुलोइज्जमाणो जणेण पंचत्तमुवगओ दरिद्दपुरिसो त्ति । तं च दळूण जंपियमणेण - अज्ज सारहि, अलं ताव मोहवासणाचिताए; साहेहि मज्झ, किं पुण इमं पेरणं ति । सारहिणा चितियं- अहो संवधिन्यामुपहसनीयभावानां प्रभवन्त्यामपि मुक्त्वा धर्मरसायन मिदमेवंविधमसमञ्जसं चेष्टितमिति । एतच्च श्रुत्वा 'अहो कुमारस्य विवेकः, अहो परमार्थदर्शिता, नात्र किञ्चिदन्यादशम, केवलं प्रभवति महामोहः' इति चिन्तयित्वा समं नगरीजनवजेन संविग्नः सारथिः । भणितं च तेन - देव ! साधु जल्पितं देवेन। तथाप्यनादिभवाभ्यस्ता मोहवासना न शक्यते त्यक्तुमिति । कमारेण भणितम-आर्य ! एवं व्यवस्थितेऽलं मोहवासनया। दारुणविपाको व्याधि:, रोद्रा च पापा जरा भवन्ति क्लेशपाया नियमेन प्राणिनः ; भणितमार्येण-'अस्ति च प्रतिपक्ष एतासां धर्मचरणम्' इति । ततो दष्टविपाकानामपि न तस्मिन् यत्न इत्यपूर्वा मोहवासना। अत्रान्तरे दृष्टः कुमारेण नातिदूरेण नीयमानः समारोपितो जरत्खट्वायां समवस्तृतो जीर्णवस्त्रेणोत्क्षिप्तो दोनपुरुषैः सदु:खकतिपयबन्धु सङ्गतो रुदता स्त्रीजनेन आक्रन्दन्त्या पत्न्या प्रलोक्यमानो जनेन पञ्चत्वमुपगतो दरिद्रपुरुष इति । तं च दृष्ट्वा जल्पितमनेन-आर्य सारथे; अलं तावन्मोहवासनाचिन्तया, कथय मह्य, किं पुनरिदं प्रेक्षणकमिति । सारथिना चिन्तितम् वाली, उपहास के योग्य अवस्था को बढ़ानेवाली इसके समर्थ होने पर भी धर्मरूपी रसायन को छोड़कर इस प्रकार का असंगत कार्य करना क्या ठीक है ?' यह सुनकर-ओह कुमार का विवेक, ओह परमार्थदशिता ! यहाँ पर कोई और नहीं, केवल महामोह प्रभाव दिखा रहा है। ऐसा सोचकर नागरिकों के समूह के साथ सारथी उदविग्न हआ। उसने कहा-'महाराज ! आपने सही कहा तो भी अनादि भवों से अभ्यस्त मोह के संस्कार नहीं छोड़े जा सकते ।' कुमार ने कहा- 'ऐसी स्थिति में मोह का संस्कार व्यर्थ है, रोग का फल भयंकर होता है. जरा (बुढ़ापा) रोद्र और पापी होता है, इनसे प्राणी सदा दुःखी होते हैं।' आर्य ने कहा- 'इन का प्रतिपक्ष धर्म का आचरण है।' किन्तु फल देखते हुए भी उसके विषय में यत्न नहीं करते – यह मोह का अपूर्व संस्कार है।'.. इसी बीच कुमार ने समीप में ही पुरानी खाट पर रखकर ले जाते हुए मृत्यु को प्राप्त निर्धन पुरुष को देखा । वह पुराने वस्त्रों से ढका था, दीन मनुष्य उसे उठाए हुए थे। वह कुछ दुःखी बन्धुओं से युक्त था। (उसके पास) स्त्रियाँ रो रही थीं, पत्नी चीख रही थी, लोग देख रहे थे। उसे देखकर इसने कहा - 'आर्य सारथी ! मोह के संस्कार के विषय में सोचने से बस करो, मुझे बताओ, क्या यह नाटक है ?' सारथी ने सोचा-ओह वैराग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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