Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 349
________________ नक्मो भवो] .७६६ अकिलिसिपव्वं, थुणंति अथोयव्वाई, झायंति अज्झाइयव्वाइं; अओ न वियारेति कज्ज।मओय उवहसंति सच्चं, कुणंति कंदप्पं, निदंति गुरुयणं, चयंति कुसलमग्गं, हवंति ओहसणिज्जा, पावंति उम्माय, निदिज्जति लोएणं, गच्छंति नरएसु; अओ न पेच्छंति आयइं । अन्नं च । इहलोए चेव कामा कारणं वहबंधणाण, कुलहरं इस्साए, निवासो अणवसमस्स, खेत्तं विसायभयाण, अओ व निदियों धम्मसत्थेसु । एक्वट्ठिए समाणे निरूबेह मज्भल्यभावेण, कह ण कामसत्थं अविगलतिवग्गसाहयफ्रं ति । जं च भणियं 'कामसत्थभणियपओयामुणो हि पुरिसस्स सयारचित्ताराहनसंरक्खण सुखसुपर भावओ विसुद्धदाणाइकिरियापसिद्धीए य महतो धम्मो त्ति, एवं पि न जुतिसंगयं । जओन कामसत्वभणियपओयन्त वि पुरिसो नियमेण सदारचित्ताराहणं करोति। दीसंति खलु इमेसि पि वहिचरंता दारा । नयासम्मपओयजणिओ तओ वहिचारो ति जुत्तमासंकिउ, न जओ एत्य निच्छए पमाण । दोसइ य तप्पओयन्न एगदारचित्ताराहनपरो वि अन्नस्स तमणाराहयंतो, अपओयन्नू वि याराहातो अक्षमया, क्लिश्यन्त्यक्ले शितव्यम्, स्तुवन्त्यस्तोतव्यानि ध्यायन्त्यध्यातव्यानि, अतो न विचारयन्ति कार्यम् । यतश्चोपहसन्ति सत्यम्, कुर्वन्ति कन्दर्पम्, निन्दन्ति गुरुजनम्, त्यजन्ति कुशलमार्गम, भवन्त्युपहसनीयाः, प्राप्नुवन्त्युन्मादम्, निन्द्यन्ते लोकेन, गच्छन्ति नरकेषु, अतो न प्रेक्षन्ते आयतिम् । अन्यच्च, इहलोके एव कामाः कारणं वधबन्धनानाम्, कुलगृहमीायाः, निवासोऽनुपशमस्य, क्षेत्रं विषादभयानाम; अत एव निन्दिता धर्मशास्त्रेषु। एवम वस्थिते सति निरूपयत मध्यस्थभावेन, कथं नु कामशास्त्रमविकल त्रिवर्गसाधनपरमिति । यच्च भणितं 'कामशास्त्रणित प्रयोगज्ञस्य हि पुरुषस्य स्वदारचित्ताराधनसंरक्षणेन शुद्धस्तभावतो विशुद्धदानादिक्रियाप्रसिद्ध या च महान धर्म' इति । एतदपि न युक्तिसंगतम। यतो न कामशास्त्रणितप्रयोगज्ञोऽपि पुरुषो नियमेन स्वदारचित्ताराधनं करोति । दृश्यन्ते खल्वेषामपि व्यभिचरन्तो दाराः । न चासम्यक्प्रयोगजनितस्ततो व्यभिचार इति युक्तमाशङ्कितुम, न यतोऽत्र निश्चये प्रमाणम् । दृश्यते च तत्प्रयोगज्ञ एकदारचित्ताराधनपरोऽपि अन्यः स तमनाराधयन्, अप्रयोगज्ञोऽपि चाराधहिताहित का विवेक न होने पर काम के सम्पादन के लिए इहलोक और परलोक दोनों में नाना प्रकार की चेष्टाएं करते हैं, अक्षमा के द्वारा क्षमा किये जाते हैं, क्लेश को न पहुँचाने योग्य को दुःख पहुँचाते हैं, स्तुति न करने योग्यों की स्तुतियां करते हैं, ध्यान न करने योग्यों का ध्यान करते हैं, अतः कार्य का भी विचार नहीं करते हैं। चूंकि सत्य का उपहास करते हैं, काम (सेवन) करते हैं गुरुओं की निन्दा करते हैं, शुभमार्ग छोड़ देते हैं, उपहास के योग्य होते हैं, उन्माद को प्राप्त करते हैं, लोक-निन्दित होते हैं, नरकों में गमन करते हैं, अत: भावी फल का भी विचार नहीं करते हैं। इस लोक में ही काम बन्ध और बन्धन का कारण है, ईया का कुलगृह (पित गह) है, अशान्ति का निवास है, विषाद और भयों का क्षेत्र है, अतएव धर्मशास्त्रों में (भी) इसकी नि है। ऐसी स्थिति में माध्यस्थ्य भाव से देखो। कामशास्त्र अविकल रूप से धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग का साधन करने में कंसे समर्थ है ? जो कहा गया है कि कामशास्त्र में कथित प्रयोग को जाननेवाले पुरुष का निश्चित रूप से अपनी स्त्री के चित्त की आराधना और संरक्षण से शुद्ध भाव से और विशुद्ध दानादि क्रियाओं को प्रसिद्धि से महान् धर्म होता है--यह भी युक्तिसंगत नहीं हैं, क्योंकि कामशास्त्र में कथित प्रयोग को जानने वाला भी पुरुष नियम से अपनी स्त्री के चित्त की सेवा नहीं करता है । इनकी स्त्रियाँ भी व्यभिचार करती हुई देखी जाती हैं। 'ठीक प्रयोग से जनित नहीं है, अत: व्यभिचार हैं' - ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस विषय का निश्चय करने में प्रमाण नहीं है । और ऐसा भी देखा जाता है कि कामशास्त्र में कथित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450