Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 302
________________ ७५२ [ समराइच्चकहा इसएणमुचिओवयारो। उवविट्ठा गणिणी पुरओ य से सपरियणा रयणवइ ति । गणिणोए भणियं-वच्छे, संसारसमावन्ना खु पाणिणो सब्वे दुक्खतरुबीयजम्मसंगया अहिहवीयंति अणुसमयं जराए, उत्थारिज्जति मोहतिमिरेण, वाहिज्जति विसयतण्हाए, कयत्थिज्जति इंदिएहि, पच्चंति काहग्गिणा, अवटुब्भंति माणपत्रएणं, मोहिज्जति मायाजालियाए, पलादिज्जति लोहसायरेण खंडिज्जति इट्ठवि ओएहि, भमाडिज्जति कालपरिणईए, कवलिज्जति मच्चण त्ति। परमत्थओ न केइ सुहिया मोतूण तप्पडिबक्खुज्जए महाणभावे। ते उण, जहा केइ महावाहिगहिया पोडिज्जमाणा महावेरणाए समादन्ननिवेया गवेसिऊण कुसलवेज्जं निवेइऊण अप्पाणयं तस्स वयणेग पडिवन्ना जहुत्तकिरियं वाहिज्जमाणा वि तव्वेयणाए विमुच्चमाणा वाहिणा अंतो-आरोग्गलाहधिईए अगणेमाणा तं बज्झदुक्खं ईसि अविमुक्का वि वाहिणा संजायविमोक्खनिच्छयमई आरोग्गसमेया विय न खलु नो सुहिया ववहारेण; तहा जे इमे भयवंतो मुणिवरा ते संसारमहावाहिगहिय त्ति पोडिज्नमाणा जम्माइमहावेयणाए समावन्न निव्वेया गर्वसिऊण भावओ - -- --.... नोचितोपचारः। उपविष्टा गणिनी, पुरतश्च तस्याः सपरिजना रत्नवती ति। गणिन्या भणितम्-वत्से ! संपारसमापन्नाः खलु प्राणिनः सर्वे दुःखतरुबीजजन्मसङ्गता अभिभूयन्तेऽनुसमय जरया, आक्रम्यन्ते मोहतिमिरेण, बाध्यन्ते विषयतृष्णया, कदर्थ्यन्ते इन्द्रियः, पच्यन्ते क्रोधाग्निना, अवष्टभ्यन्ते मानपर्वतेन, मुह्यन्ते मायाजालिकया, प्लाव्यन्ते लोभसागरेण, खण्ड्यन्ते इष्टवियोगैः, भ्राम्यन्ते कालपरिणत्या, कवल्यन्ते मृत्युनेति । परमार्थतो न केऽपि सुखिता मुक्त्वा तत्प्रतिपक्षोद्यतान् महानुभावान् । ते पुनर्यथा केऽपि महाव्याधिगृहीता पीडयगाना महावेदनया समापन्न निर्वेदा गवेषयित्वा कुशलवैद्यं निवेद्यात्मानं तस्य वचनेन प्रतिपन्ना यथोक्तक्रियां बाध्य माना अपि तवेदनया विमुच्यमाना व्याधिना अन्त आरोग्यलाभधृत्याऽगणयन्तो तद् बाह्यदुःखमीषदविमुक्ता अपि व्याधिना संजातविमोक्षनिश्चयमतिरारोग्यसमेता इव न खलु न सुखिता व्यवहारेण, तथा ये इमे भगवन्तो मुनिवरास्ते संसारमहाव्याधिगृहीता इति पीडयमाना जन्मादिमहावेदनया आओ चलें।' गणिनी रत्नवती के साथ गयीं और रत्नवती के घर में प्रविष्ट हुईं। उसने (रत्नवती ने) घबड़ाहट की अधिकता से योग्य सेवा की। गणिनी बैठी और उनके सामने ही परिजनों के साथ रत्नवती भी बैठ गयी। गणिनी मे कहा-पुत्री ! संसार में आये हुए सभी प्राणी दुःख रूपीवृक्ष के बीजस्वरूप जन्म से युक्त होकर प्रति समय बुढ़ापे से आक्रान्त होते हैं, मोहरूपी अन्धकार से आक्रान्त होते हैं, विषय तृष्णा से बाधित होते हैं, इन्द्रियों से तिरस्कृत होते हैं. क्रोवरूपी अग्नि से पकाये जाते हैं, मानरूपी पर्वत से रोके जाते हैं, मायाजाल से मोहित होते हैं, लोभ-सागर से आप्लावित होते हैं, इष्ट वियोगों से खण्डित होते हैं, काल की परिणति से भ्रमित होते हैं और मृत्यु के द्वारा ग्रास बनाये जाते हैं। संसार के विरोधी मोक्षमार्ग में उद्यत महानुभावों को छोड़कर यथार्थ रूप से कोई भी सुखी नहीं है । वे जैसे कोई महारोग से ग्रसित होकर पीड़ित होते हुए महावेदना से विरक्ति प्राप्त करते हैं और कुशलवंद्य को खोजकर (उससे) अपना निवेदन करते हैं और फिर कहे हुए वैद्य के वचनानुसार उसकी क्रिया को प्राप्त करते हैं, तब फिर उस वेदना से बाध्य किये जाते हुए भी व्याधि से मुक्त हुए अन्त में आरोग्य-लाभ होने के धैर्य के कारण उस बाह्य दुःख को दुःख न मानकर रोग से कुछ अविमुक्त होने पर भी वे छुटकारे का निश्चय करते हैं. इस तरह वे निश्चित रूप से आरोग्ययुक्त के समान व्यवहार से सुखी नहीं होते हैं, ऐसा नहीं है अर्थात् व्यवहार से वे सुखी होते हैं । उसी प्रकार जो भगवान् मुनिश्रेष्ठ हैं वे संसार रूपी महारोग से गृहीत हैं अत: जन्मादि वेदना से पीड़ित हो विरक्ति प्राप्त करते हैं तब भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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