Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 300
________________ ७५० [समराइच्चकहा ता परिच्चय तमं इणमसव्ववसायं। अहावि कहंचि चितसामत्थयाए देवस्स इयमेवं चेव, तओ सवेसि चेव अम्हाणमियं पत्तकालं। कोस तमं आउला। पेसिओ य मए अज्ज पवणगइनामो लेहवाहओ। सो अवस्सं पंचदियहन्भंतरे आगच्छइ। तओ समागए तस्सि जहाजुत्तं करेस्सामो। न ताव अंतरे संतपियव्वं ति। रयणवईए भणियं-जं ताओ आणवेइ। तहावि विन्नवेमि तायं । तायाएसेण करेमि अहं संतियम्म, देमि महादाणं, पूएमि देवयाओ, परिच्चएमि अज्जउत्तकुसलपउत्तिकालादारओ आहारगहणं ति। राइणा भणियं- करेहि वच्छ न एत्थ दोसो त्ति। रयणवईए भणियंताय, महापसाओ। तओ 'अविहवा हवसु' त्ति भणिऊण गओ मेत्तीबलो। पारद्धं च णाए जहोचियं संतियम्म। दिट्टा य सव्वसंपया संपूयणगयाए वियारभूमिपडिणियत्ता अइक्कल्लणाए आगिईए परिचत्ता वियारेहि संगया नाणजोएण समद्धासिया तवप्तिरीए गहिया उवसमेण परिणया भावणाए परियरिया साहुणीहि विग्गहवई विय चरणसंपया सेयवियाहिवस्स धूया कोसलाहिवस्स पत्ती गिहत्थपरियाएण सुसंगया नाम गणिणी। तं च दळूण पणटो विय रयणवईए सोओ, आणंदिया चित्तण केनापि एषा कपटवार्ता कृता भविष्यति । ततः परित्यज त्वमिममसद्व्यवसायम् । अथापि कथञ्चिदचिन्त्यसामर्थ्यतया देवस्येदमेवमेव, ततः सर्वेषामेवास्माकमिदं प्राप्तकालम् । कस्मात् त्वमाकला। प्रेषितश्च मयाऽद्य पवनगतिनामा लेखवाहकः। सोऽवश्यं पञ्चदिवसाभ्यन्तरे आगच्छति । ततः समागते तस्मिन् यथायुक्तं करिष्यामः । न तावदन्तरे सन्तप्तव्यमिति । रत्नवत्या भणितम्-यत तात आज्ञापयति, तथापि विज्ञपयामि तातम् । तातादेशेन करोम्यहं शान्तिकर्म, ददामि महादानम, पूजयामि देवताः, परित्यजाम्यार्यपुत्रकुशलप्रवृत्तिकालादारत आहारग्रहणमिति । राज्ञा भणितम्कुरु वत्से ! नात्र दोष इति । रत्नवत्या भणितम्-तात ! महाप्रसादः। ततः 'अविधवा भव' इति भणित्वा गतो मैत्रीबलः । प्रारब्धं च तया यथोचितं शान्तिकर्म । दृष्टा च सर्वसम्पदा सम्पूजनगतया विचारभूमिप्रतिनिवृत्ता अतिकल्याण्याऽऽकृत्या परित्यक्ता विकारैः संगता ज्ञानयोगे समध्यासिता तपःश्रिया गृहीता उपशमेन परिणता भावनया परिकरिता साध्वीभिर्विग्रहवतीव चरणसम्पद् श्वेतविकाधिपस्य दुहिता कोशलाधिपस्य पत्नी गहस्थपर्यायेण सुसङ्गता नाम गणिनी। तां च दृष्ट्वा इस प्रकार का अमंगल नहीं हो सकता है। दूसरे जन्म के किसी वैरी ने यह कपटवार्ता की होगी। अतः तुम इस असत्कार्य को छोड़ो । फिर कथंचित् देव की सामर्थ्य से यह ऐसा ही हो तो हम सभी की ही मृत्यु उपस्थित हुई है। तुम आकुल क्यों हो ? मैंने आज पवनगति नाम का लेखवाहक भेजा है। वह अवश्य ही पांच दिन में आ जायेगा। अनन्तर, उसके आ जाने पर, योग्य कार्य करेंगे। बीच में दुःखी नहीं होना चाहिए।' रत्नवती ने कहा-'जो पिताजी की आज्ञा, तथापि पिताजी से निवेदन करती हूँ कि पिताजी के आदेश से मैं शान्तिकर्म करती हूँ, महादान देती हूँ, देवताओं की पूजा करती हूँ। आर्यपुत्र की कुशलता आने तक मैं आहार लेने का परित्याग करती हूँ।' राजा ने कहा-'पुत्री करो, इसमें दोष नहीं है।' रत्नवती ने कहा-'पिताजी, बहुत बड़ी कृपा की।' अनन्तर 'सौभाग्यवती होओ' ऐसा कहकर मैत्रीबल चला गया। रत्नवती ने यथायोग्य शान्तिकर्म आरम्भ किया तब समस्त सम्पदाओं के साथ पूजन करते हुए गृहस्थ अवस्था में श्वेतविका के राजा की पुत्री, कोशलराज की पत्नी सुसंगता नामक गणिनी को देखा । वह विचार की भूमि से लौटी हुई थीं, उनकी आकृति अत्यन्त कल्याणमय थी, विकारों ने उन्हें छोड़ दिया था, ज्ञानयोग से वह युक्त थीं, तपरूप लक्ष्मी से समन्वित थीं, उपशम ने उन्हें ग्रहण कर लिया था, भावना के द्वारा वह परिणत थीं, साध्वियां उन्हें घेरे हुए थीं। (इस प्रकार) मानो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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