Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 324
________________ ७७४ [ समराहच्चकहा लेण पूरिया जलोहेण वित्यरंती सबओ, निवाडयंती कुलाणि, विणासयंती आरामे, कलसयंती अप्पाणयं, संगया करजलयरेहि, रहिया बुहजणसेवणिज्जेण जलेण, अहिटिया कल्लोलेहि, वज्जिया मज्जायाए, अच्चंतभीसगेगं महावत्तसंघाएणं बालाइभयजणणि ति। तं च कंचि वेलं पुलइय पविट्ठो नयरिं राया। अइक्कंता कइइ दियहा। सरयसमए आसपरिवाहणनिमित्तं वाहियालि गच्छमाणेण पुणो पयइभावढ़िया संगया सच्छोदएण वज्जिया कूरजलयरेहिं विसिट्ठजणोवभोयसंपायणसमत्था स च्चेव दिट्ठति । तं च दळूण सुमरियपुत्ववुत्तंतस्स राइणो तहाकम्मपरिणइवसेण समुप्पन्नो संवेओ। चितियं च णेण-अहो णु खलु असारो बज्झरिद्धिवित्थरो, सपरावगारओ य परमत्थेण। एसेव सरिया एत्थ निदसणं ति। जहा इमा वित्थरंती सव्वो अप्पपरावगारिणी पुव्वोवलद्धवृत्तंतेण, तहा पुरिसो वि वित्थरंतो बज्झवित्थरेण; सो खलु महारंभ रिग्गयाए निवाडेइ सुहभावकूलाणि, विणासेइ धम्मचरणारामे, कलसेइ कम्मुणा अप्पाणयं, संजुज्जए कूरसत्तेहि, विउज्जए निरीहसाहुजणेण, सेविज्जए उम्मायकल्लोलेहि, वज्जिज्जए किच्चमज्जायार । एवं च महामोहावत्तमझवत्ती लेन पूरिता जलोधेन विस्तृण्वती सर्वतः, कूलानि निपातयन्ती, विनाशयन्त्यारामान्, कलुषन्त्यात्मानम्, संगता क्रूरजलचरः, रहिता बुधजनसेवनीयेन जलेन, अधिष्ठिताः कल्लोलैः, वजिता मर्यादया, अत्यन्तभीषणेन महावर्तसंघातेन बालादिभय जननीति । तां च कांचिद् वेलां दृष्ट्वा प्रविष्टो नगरी राजा । अतिक्रान्ता कतिचिद् दिवसाः। शरत्समये अश्वपरिवाहननिमित्तं वाह्यालि (अश्वखेलनभूमि) गच्छता पुनः प्रकृतिभावस्थिता संगता स्वच्छोदकेन वजिता क्रूरजलचरैविशिष्टजनोपभोगसम्पादनसमर्था सैव दृष्टेति । तां च दृष्ट्वा स्मृतपूर्ववृत्तान्तस्य राज्ञः तथाकर्मपरिणतिवशेन समुत्पन्न: संवेगः । चिन्तितं च तेन-अहो नु खल्वसारो बाह्य ऋद्धिविस्तारः, स्वपरापकारकश्च परमार्थेन । एषव सरिदत्र निदर्शनमिति । यथेयं विस्तृण्वती सर्वत आत्मपरापकारिणी पूर्वोपलब्धवृत्तान्तेन; तथा पुरुषोऽपि विस्तृण्वन् बाह्यविस्तारेण; सः खलु महारम्भपरिग्रहतया निपातयति शुभभावकूलानि, विनाशयति धर्मचरणारामान्, कलुषयति कर्मणाऽऽत्मानम्, संयुज्यते क्रूरसत्त्वैः, वियुज्यते निरीहसाधुजनेन, सेव्यते उन्मादकल्लोलैः, वय॑ते कृत्यमर्यादया। एवं च महामोहावर्तमध्यवर्ती निरथि और कीचड़ से भरी हुई जलवाली नदी को देखा । वह चारों ओर फैली हुई थी। किनारों को गिरा रही थी। उद्यानों का विनाश कर रही थी। अपने आपको कलुषित (कीचड़ से युक्त) कर रही थी ! क्रूर जलचरों से युक्त थी। विद्वानों के द्वारा सेवन करने योग्य जल से रहित थी। बड़ी-बड़ी भयंकर भवरों के समूह से बच्चों आदि को भय उत्पन्न कर रही थी। उसे कुछ समय देख कर राजा नगरी में प्रविष्ट हुआ। कुछ दिन बीत गये। शरत्काल में घोड़े को चलाने के लिए अश्वक्रीडा-भूमि में जाते हुए पुन: स्वाभाविक रूप में स्थित, स्वच्छ जल से युक्त, क्रूर जलचरों से रहित, विशिष्ट लोगों के उपभोग को पूर्ण करने में समर्थ वही नदी दिखाई दी। उसे देखकर, जिसे पूर्ववृत्तान्त याद आ गया है, ऐसे राजा को कर्म की परिणतिवश विरक्ति उत्पन्न हो गयी। उसने सोचा -ओह ! बाह्य ऋद्धि का विस्तार असार है और यथार्थ रूप से अपना और दूसरे का अपकारक है । यही नदी यहाँ दृष्टान्त है । जैसे यह नदी पूर्व उपलब्ध वृत्तान्त से विस्तृत होती हुई सभी ओर से अपना अपकार करने वाली थी, उसी प्रकार पुरुष भी बाह्य विस्तार से (अपना) विस्तार करता हुआ अपना अपकारी है। वह मनुष्य महान् आरम्म और परिग्रह से शुभभाव रूपी किनारों को गिराता है, धर्मपालन रूप पद्यानों का विनाश करता है । अपने आपको कर्मों से कलुषित करता है, क्रूर प्राणियों से युक्त होता है, निरीह साधुओं से वियुक्त होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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