Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 327
________________ अट्ठो भवो ] अइक्कतो कोइ कालो । अहिज्जियं सुत्तं, अन्भत्यो किरियाकलावो । उचियसमए य जाया से इच्छा 'पवज्जामि अयं एगल्लविहारपडिमं' । पुच्छिओ गुरू, अणुन्नाओ य णेणं' । कया सत्ताइतुलणा । निव्वूढेण पवन्नो सिद्धतविहिणा एगल्लविहारप डिमं ति । निरइयारकप्पेण य विहरमाणस्स अवतो कोइ कालो । अन्नया य गओ कोल्लागसन्निवेलं ठिओ य तत्थ पडिमाए' । दिट्ठो मलयपतिथएणं वाणमंतरेण । जाओ से कोषो । चितियं च णेणं - पेच्छ सो पावो पावपरिणईए कीइसो जाओ त्ति । वावाएमि संपयं, एसो य एत्युवाओ । एवं चेव संठियस्स मुएमि उर्वार महामहंत सिलं ति । तीए संचण्णियंगुवंगो वज्जपहारभिन्नो विय गिरी सयसिक्करो गमिस्सह । वावाइए य एयम्मि कयत्थो अह, सफलं विज्जाबलं । ता लहुं समीहियं करेमि त्ति । चितिऊण अइरोद्दज्झाणसंगएणं अदूरदेसवत्तिगिरिवराओ गहिया महासिला, उप्पइऊण दूरमंबरं भयवओ उवरि मुक्का य णेण । पीडिओ तीए भयवं काएण, न उण भावेण । निरूविओ वाणमंतरेण । जाव 'न वावाइओ' त्ति, ७७७ अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अधीतं सूत्रम्, अभ्यस्तः क्रियाकलापः । उचितसमये च जाता तस्येच्छा 'प्रपद्येऽहमेककविहारप्रतिमाम्' । पृष्टो गुरुः, अनुज्ञातश्च तेन । कृता सत्त्वादितुलना । निर्व्यूढेन प्रपन्नः सिद्धान्तविधिना एककविहारप्रतिमामिति । निरतिचारकल्पेन च विहरतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च गतः कोल्लाकसन्निवेशम् स्थितश्च तत्र प्रतिमया । दृष्टो मलयप्रस्थितेन वानमन्तरेण । जातस्तस्य कोपः । चिन्तितं च तेन --पश्य स पापः पापपरिणत्या कीदशो जात इति । व्यापादयामि साम्प्रतम्, एष चात्रोपायः । एवमेव संस्थितस्य मुञ्चाम्युपरि महामहतीं शिलामिति । तया सञ्चूर्णिताङ्गोपाङ्गो वज्रप्रहारभिन्न इव गिरिः शतशर्करो गमिष्यति । व्यापादिते चैतस्मिन् कृतार्थोऽहम्, सफलं विद्याबलम् । ततो लघु समीहितं करोमीति । चिन्तयित्वाऽतिरौद्रध्यान सङ्गतेनादूरदेशवर्तिगिरिवराद् गृहीता महाशिला, उत्पत्य दूरमम्बरं भगवत उपरि मुक्ता च तेन । पीडितस्तया भगवान् कायेन, न पुनर्भावेन । निरूपितो वानमन्तरेण । यावद् 'न व्यापादितः' इति कुपितो कुछ समय बीता। सूत्र पढ़ा, क्रियाओं के समूह का अभ्यास किया। उचित समय पर उसकी इच्छा हुईमैं एकाकी विहार करने की प्रतिमा प्राप्त करू । गुरु से पूछा । उन्होंने अनुमति दे दी। सत्त्वादि तुलना की । पूर्णतया देखकर सैद्धान्तिक विधि से अकेले विहार करने की प्रतिमा को प्राप्त हुआ । निरतिचार रूप से विहार करते हुए कुछ समय बीत गया । एक बार कोल्लाक सन्निवेश में गया और वहाँ प्रतिमा-योग से स्थित हो गया। मलय की ओर जाते हुए बानमन्तर ने देखा । उसे क्रोध उत्पन्न हुआ और उसने सोचा- देख, वह पापी पाप के फलस्वरूप कैसा हो गया । अब मारता हूँ, यह यहाँ उपाय है। इस प्रकार स्थित ( इसके ) ऊपर बहुत बड़ी शिला छोड़ता हूँ । उस शिला से अंगोपांगों के चूर्ण हो जाने पर बज्र के प्रहार से टूटे हुए पर्वत के समान ( इसके ) सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे। इसके मर जाने पर मैं कृतार्थ हो जाऊँगा, मेरा विद्यावल सफल हो जायेगा । अतः शीघ्र ही इष्ट कार्य करता हूँ --- ऐसा सोचकर अत्यन्त रौद्र ध्यान से युक्त हो समीपवर्ती पर्वत से बहुत बड़ी शिला ली, दूर आकाश में ले जाकर भगवान् के ऊपर छोड़ दी । उसने भगवान् को शरीर से पीड़ित किया, भाव से नहीं । वानमन्तर ने देखा - 'नहीं १० गुरुणा - पा. ना. २. विवित्तपएसे पडिमाए - पा. ज्ञा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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