Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 319
________________ मट्ठमो भवो ] ७६९ भणिऊण पुलइया अहं भणिया य-- -देवि, दुल्लहो भयवंततुल्लो धम्मसारही । उवाएओ य सव्वहा धम्मो, सव्वमन्नं संकिलेसकारणं । न होइ धम्मो गुरुमंतरेण, ता संपाडेमि भयवओ आणं ति । मए भणियं - अज्जउत्त, जुत्तमेयं । तओ दयावियं राइणा महादाणं, काराविया अट्ठाहियामहिमा सम्माणिया पउरजणवया, ठाविओ रज्जे सुरसुंदरी नाम जेट्ठपुत्तो । तओ अणेयसामंतामच्चपरियओ सह मए सयलं ते उरेण य सुगिहीयनामधेयगुरुसमीवे सुत्तभणिएण विहिणा पवड्ढमाणेणं सुहपरिणाhi इओ राया। ता एवं वच्छे, थेवेण कम्मुणा इयं मए पावियं ति । अओ अवगच्छामि थेवस्स अन्नाण चेद्वियस्स, वच्छे, एसो विवाओ, पहूयस्स उ तिरियाइएसुं हवइ । एवं च कम्मपरिणईए समाasure व असा उदए पुग्वकडमेयं ति न संतप्पियव्वं जाणएण । एयमायणिऊण आविभूयसम्मत देस विरइपरिणामाए जंपियं रथणवईए । भयवइ, महंतं दुक्खमणुभूयं भयवईए अहवा ईइसो एस संसारो । सव्वा कयत्था भयवई, जा समुत्तिष्णा इमाओ किलेसजंबालाओ । अहं पि धन्ना चेव, जीए मए तुमं दिट्ठा। न अप्पपुण्णाणं चिंतामणिरयणसंपत्ती हवइ । ता आइसउ भयवई, जं मए कुशलयोगेन करोमि भगवत आज्ञामिति । भणित्वा दृष्टाऽहं भणिता च - देवि ! दुर्लभो भगवत्तुल्यो धर्मसारथिः । उपादेयश्च सर्वथा धर्मः, सर्वमन्यत् संक्लेशकारणम् । न भवति धर्मो गुरुमन्तरेण, ततः सम्पादयामि भगवत आज्ञामिति । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! युक्तमेतद् । ततो दापितं राज्ञा महदानम्, कारितोऽष्टाह्निकामहिमा, सन्मानितः पौरजनव्रजाः, स्थापितो राज्ये सुरसुन्दरो नाम ज्येष्ठपुत्रः । ततोऽनेक सामन्तामात्यपरिवृतः सह मया सकलान्तः पुरेण च सुगृहीतनामधेयगुरुसमीपे सूत्र - भणितेन विधिना प्रवर्धमानेन शुभपरिणामेन प्रव्रजितो राजा । तत एवं वत्से ! स्तोकेन कर्मणेदं मया प्राप्तमिति । अतोऽवगच्छामि स्तोकस्याज्ञानचेष्टितस्य वत्से ! एष विपाकः, प्रभूतस्य तु तिर्यगादिकेषु भवति । एवं कर्मपरिणतौ समापतितायामपि अस्या उदये 'पूर्वकृतमेतद्' इति न सन्तप्तव्यं ज्ञायकेन । एवमाकर्ण्याविर्भूत सम्यक्त्व देशवि रतिपरिणामया जल्पितं रत्नवत्या - भगवति ! महद् दुःखमनुभूतं भगवत्या । अथवैदृश एष संसारः । सर्वथा कृतार्था भगवती, या समुत्तीर्णाऽस्माद् क्लेशजम्बालाद् । अहमपि धन्यैव यया मया त्वं दृष्टा । नाल्पपुण्यानां चिन्तामणिरत्नसम्प्राप्तिर्भवति । है । अत: यह करना चाहिए।' तब राजा ने कहा- 'भगवन् ! ठीक है, भगवान् से मैं अनुगृहीत हूँ, शुभयोग से भगवान् की आज्ञा का पालन करूँगा' - ऐसा कहकर ( राजा ने ) मुझे देखा और कहा - 'महारानी ! भगवान् के समान सारथी दुर्लभ है । सब प्रकार से धर्म ग्रहण करने योग्य है और अन्य सब दुःख का कारण है । गुरु के बिना धर्म नहीं होता है अतः भगवान् की आज्ञा पूर्ण करता हूँ।' मैंने कहा - 'आर्यपुत्र ! ठीक है ।' अनन्तर महादान दिलाया, आष्टाह्निक महोत्सव कराया, नगरनिवासियों का सम्मान किया, राज्य पर सुरसुन्दर नामक बड़े पुत्र को बैठाया । अनन्तर अनेक सामन्त और आमात्यों से युक्त हो मेरे और समस्त अन्त: पुर् के साथ सुगृहीत नाम वाले गुरु के पास सूत्रकथित विधिपूर्वक बढ़े हुए शुभ परिणामों से राजा प्रव्रजित हो गये । तो इस प्रकार पुत्री, थोड़े से कर्म से मैंने यह पाया । अतः जानती हूँ पुत्री ! कि थोड़ी-सी अज्ञान चेष्टा का यह फल होता है और भी अधिक अज्ञान चेष्टा का फल तिथंच आदि गतियों में गमन होता है। इस प्रकार कर्मों की परिणति के उदय में आने पर 'यह पहले का किया हुआ (कर्म) है - ऐसा सोचकर ज्ञानी को दुखी नहीं होना चाहिए ।' ऐसा सुनकर उत्पन्न सम्यक्त्व रूप देशविरति के परिणामोंवाली रत्नवती ने कहा- 'भगवती ! भगवती से बहुत दुःख भोगा । अथवा यह संसार ही ऐसा है। भगवती सब प्रकार से कृतार्थ हैं जो कि इस क्लेशरूपी जाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450