Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 314
________________ [ समराइचकहा संगमो भवइ । एवं विसुचितणेण खविओ कम्मसंघाओ आसगलियं बोधिबीयं । एत्थंतरम्मि धम्मलाहिया साहूहि सुहयरपरिणामा य पडिया तेसि चलणेसुं। एत्थतरम्मि अप्पारंभपरिग्गहत्तणेण सहावमद्दवज्जवयाए साहुसन्निहिसामत्थओ सुद्धभावयाए य बद्धं सुमाणुसाउयं । गया भयवंतो साहुमो । गएसु वि य न तुट्टो ते तयणुसरणसंगओ सुहभावाणुबंधो। अहाउयपरिक्खएणं च मया समाणी तक्कम्मदोससेससंगया चेव समुप्पन्ना सेयवियाहिवस्स धूय त्ति । पत्तवया य परिणीया कोसलाहिवेण; तक्कम्मसेसयाए य जक्खिणीरूवविप्पलद्धेण कयत्थाबिया णेणं । ता एवं वच्छे दुटुपरिव्वाइयाहवणकम्मविवागसेसमेयं ति। एयमायण्णिऊण अवगयं चिय मे मोहतिमिरं, जाओ भवविराओ, उप्पन्नं जाइसरणं, वडिओ संवेगो। वंदिऊण भणिओ भयवं गुरू-भयवं, एवमेयं; अह कया उण तक्कम्मविवाओ नीसेसीभविस्सइ। भयवया भणियं-वच्छे, इमिणा अहोरत्तेण । मए भणियं-भयवं, कया कहं वा तं जविखणि वियाणिस्सइ अज्जउत्तो । भयवया भणियं-वच्छे, अज्जेव रयणीए तुह सहावासरिसयाए धन्यानामेवंविधैः सह संगमो भवति । एवं विशुद्धचिन्तनेन क्षपितः कर्मसंघातः, प्रादुर्भूतं बोधिबीजम् । अत्रान्तरे धर्मलाभिता साधुभिः शुभतरपरिणामा च पतिता तेषां चरणेषु । अत्रान्तरे अल्पारम्भपरिग्रहत्वेन स्वभावमार्दवार्जवतया साधुसन्निधिसामर्थ्यतः शुद्धभावतया बद्धं सुमानुषायुष्कम् । गता भगवन्तः साधवः । गतेष्वपि च न त्रुटितस्तव तदनुस्मरणसंगतः शुभभावानुबन्धः । यथाऽऽयुःपरिक्षयेण च मृता सती तत्कर्मदोषशेषसंगतव समुत्पन्ना श्वेतविकाधिपस्य दुहितेति । प्राप्तवयाश्च परिणीता कोशलाधिपेन । तत्कर्मशेषतया च यक्षिणीरूपविप्रलब्धेन कर्थितास्तेन। तत एवं वत्से ! दुष्टपरिवाजिकाह्वनकर्मविपाकशेषमेतदिति । एतदाकर्ण्य अपगतमिव मे मोहतिमिरम्, जातो भवविरागः, उत्पन्न जातिस्मरणम्, वद्धित: संवेगः। वन्दित्वा भणितो भगवान् गुरुः - भगवन् ! एवमेतद् । अथ कदा पुनः तत्कर्मविपाको निःशेषीभविष्यति । भगवता भणितम् - वत्से ! अनेनाहोरात्रेण । मया भणितम्-भगवन् ! कदा कथं वा तां यक्षिणों विज्ञास्यत्यार्य पुत्रः । भगवता भणितम्-वत्से ! अद्यैव रजन्यां तव धन्य हैं जिनका ऐसे साधुओं से समागम होता है। इस प्रकार के विशुद्ध चित्त से कर्मसमूह नष्ट कर डाला, ज्ञानबीज उत्पन्न हुआ। इसी बीच साधुओं ने धर्मलाभ दिया । अत्यधिक शुभ परिणामों वाली होकर तूं उनके चरणों में गिर गयी। इसी बीच थोड़ा आरम्भ और परिग्रह, स्वभाव की मृदुता और सरलता, साधुओं के सामीप्य का प्रभाव तथा शुद्ध भावों की परिगति के कारण उस शबरी ने अच्छी मनुष्य आयु बाँधी। भगवान् साधु चले गये । उनके चले जाने पर भी उनके स्मरण से युक्त शुभभावों का वह प्रभाव नहीं छूटा। यथायोग्य आयु का क्षय कर मरकर उस शेष कर्म के दोष के साथ ही श्वेतविका के राजा की पुत्री हुई। युवावस्था प्राप्त होने पर कोशलाधिप ने विवाहा, उस कर्म के शेष होने के कारण यक्षिणी के रूप से ठगे गये राजा ने तुम्हारा तिरस्कार किया। अतः हे पुत्री ! इस प्रकार दुष्ट परिवाजिका को बुलाने के कर्म का यह शेष फल है।' यह सुनकर मानो मेरा मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो गया, संसार से विराग हो गया, जातिस्मरण हो गया, विरक्ति बढ़ी । वन्दना कर भगवान गुरु से कहा-'भगवन् ! यह ठीक है, (कृपया यह बतलाइए) वह कर्म का फल कब पूरा होगा?' भगवान् ने कहा – 'पुत्री ! इसी दिन-रात में।' मैंने कहा - 'भगवन् ! कब और कैसे आर्यपुत्र उस यक्षिणी को जानेंगे ?' भगवान् ने कहा - 'आज ही रात तुम्हारे स्वभाव की असदृशता के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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