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[ समराइच्चकहा
जम्हा गरूहि भणियं सरीरविणिवायणं पि तब्माण । जइ कोइ तम्मि दियहे करेज्ज तुम्भेहि खां यच्वं ।।८७३॥ ता कह गुरूण वयणं सुमरंतेहि गुणभूसियं नाह। परलोयबंधुभूयं कोरइ विवरीयमम्हेहिं ॥८७४॥ अह मोत्तण धणवरं तमए तो सिरिमई इमं भणिया। सच्चं गुरूण वरणं कह कीरइ अन्नहा सुयणु ॥८७५॥ तुह नेहमोहिएणं मए बि एयमिह ववसिय आसि । ता अलमेएण पिए गुरुवयणे आयरं कुणसु ॥८७६॥ एत्थंतरम्मि रुंजियसद्देण नहंगणं स पूरेतो। महिदिन्नतलपहारो उढिओ तुज्झ सीहो ति॥८७७॥ परिचितियं च तुमए गुरूवएसपरिवालणानिहसो। उक्यारि च्चिय एसो अम्हाणं पसवनाहो त्ति ॥८७८॥ यस्माद् गुरुभिर्भणित शरीरविनिपातनमपि युवयोः । यदि कोऽपि तास्मन् दिवसे कुर्याद् युवाभ्यां क्षन्तव्यम् ॥८७३॥ ततः कथं गुरूणां वचनं सरद्भ्यां गुणभूषितं नाथ । परलोकबन्धुभूतं क्रियते विपरीतमावाभ्याम् ॥७७४॥ अथ मुक्त्वा धनुर्वरं त्वया ततः श्रीमतीदं भणिता। सत्यं गुरूणां व वनं कथं क्रियतेऽन्यथा सुतनु ! ॥८७५॥ तव स्नेहमोहितेन भय ऽप्येतदिह व्यवसितमासीद् । ततोऽन मेते। प्रिये ! गुरुवचने आदरं कुरु । ८७६।। अत्रान्तरे रुजितशब्देन नभोङ्गणं स पूरयन् । महीदत्ततलप्रहार उपस्थि स्तव सिंह इति ॥८७७॥ परिचिन्तितं च त्वया गुरूपदेशपरिपालनानिकषः । उपकार्येव एष आवयोः मृगनाथ इति । ८७८॥
शरीर का कोई उस दिन घात भी करे तो भी तुम दोनों उसे क्षमा कर देना। अत: हे नाथ ! परलोक के बन्धभूत और गुणों से भूषित गुरु के वचन को स्मरण करते हुए हम दोनों विपरीत (आचरण) कैसे कर सकते हैं ?' इसके बाद श्रेष्ठ धनुष को छोड़कर तुमने श्रीमती से यह कहा - 'हे सुन्दरी ! सचमुच गुरुओ के वचन अन्यथा कैसे कर सकते हैं ? मैंने भी तुम्हारे स्नेह से मोहित होकर यह निश्चय किया था। अतः हे प्रिये, इससे बस ! अर्थात् इसे मारना व्यर्थ है, गुरुवचनों के प्रति आदर करो।' इसी बीच भयंकर गर्जन के शब्द से आकाश रूसी आँगन को व्याप्त करता हुआ वह सिंह अपने तलुए से पृथ्वी पर प्रहार करता हुआ तुम्हारे पास आया और तुमने सोचा कि गुरु के उपदेश का पालन करने के लिए कसोटी के तुल्य यह सिंह हम दोनों का उपकारी ही है ।।८३१-८७८॥
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