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[समराइच्चकहा
तुम्भेहि साहुणीए जीए दिट्ठाइ गोयरगयाए। भणियं अज्जेवम्हे वसहिं पुट्ठाउ एएहि ।। ६२१॥ गोयरगयाउ धणियं सद्धावंताइ तह य एयाई। तित्थयरवंदणत्थं भत्तीए इहागयाइं ति ॥२२॥ गणिणीए तओ भणियं साहु कयं धम्मनिहियचित्ताई। ज एत्थ आगयाइं किच्चमिणं नवर भवियाण ॥२३॥ जम्हा जयम्मि सरणं धम्म मोत्तूण नत्थि जीवाणं । सारीरमाणसेहिं दुक्खेहि अहिदुयाणं ति ।। ६२४॥ न य सो तीरइ काउं जहडिओ वज्जिऊण मणुयत्तं । तं पुण चलं असारं सुविणयमाइंदजालसमं ॥२५॥ लक्षूण माणुसत्तं धम्मं न करेह जो विसयलद्धो। दहिऊण चंदणं सो करेइ अंगारवाणिज्जं ॥२६॥
युवयोः (सतोः) साध्व्या यया दृष्टौ गोचरगतया। भणितमद्यव वयं वसतिं पृष्टा एताभ्याम् ।।९२१॥ गोचरगता गाढ श्रद्धावन्तौ तथा चैतौ । तीर्थकरवन्दनाथ भक्त्या इहागताविति ।।२२।। गणिन्या ततो भणितं साधु कृतं धर्मनिहितचित्तौ। यदत्रागतौ कृत्यमिदं नवरं भविकानाम् ।।६२३॥ यस्माद् जगति शरणं धर्म मुक्त्वा नास्ति जीवानाम् । शारीरमानसर्दुःखैरभिद्रुतानामिति ॥६२४।। न च स शक्यते कतु यथास्थितो जित्वा मनुजत्वम् । तत्सुनश्चलमसारं स्वप्नमृगेन्द्रजालसमम् ।।६२५।। लब्ध्वा मानुषत्वं धर्म न करोति यो विषयलुब्धः । दग्ध्वा चन्दनं स करोत्यङ्गारवाणिज्यम् ॥६२६॥
रहते हैं ?' तुम दोनों ने जब कहा कि यहीं रहते हैं तो जिस साध्वी ने मार्ग बतलाया था उसने कहा-'आज ही हम लोगों से इन दोनों ने वसति (आश्रम) के विषय में पूछा था । मार्ग ज्ञात कर और अत्यधिक श्रद्धावान होकर ये दोनों तीर्थंकर की वन्दना के लिए भक्तिपूर्वक यहाँ आये हैं।' अनन्तर गणिनी ने कहा -'ठीक किया जो कि धर्म को आने चित्त में रखकर आप दोनों यहाँ आये। यह भव्यजनों के योग्य कार्य है; क्योंकि इस संसार में शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीड़ित जीवों को धर्म को छोड़ कर (अन्य कोई) शरण नहीं है। वह धर्म मनुष्य भव को छोड़कर (अन्य भवों में) यथायोग्य रीति से नहीं साधा जा सकता है। यह मनुष्य-भव चंचल और असार है, स्वप्नवत् और मगेन्द्रजाल के समान है। विषय का लोभी जो मनुष्यभव पाकर धर्म नहीं करता है वह
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