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[ समराइचकहा
पडिबुद्ध कंबधवलं मणहरविलसंतमोत्तिओऊलं । छत्तत्तयं च गुरुणो तिहुयणनाहसणुप्फालं ॥७५३॥ हेममयचित्तदंडे पवणपणच्चंतधयवडसणाहे। गयणतलमणुलिहते निम्मविए सीहचक्कधए ॥७५४।। हंसउलपण्डराओ गयणम्मि कयाउ चामराओ य । जलहरणियसराओ मणहरसुरदुंदुहीओ य ॥७५५॥ तरुणरविमंडलनिहं निमियं वरकणयपोंडरीयम्मि। पुरओ य धम्मचक्कं निम्मवियं वंतरसुरेहिं ॥७५६॥ भामंडलं च वियडं निम्मवियं दित्तदिणयरच्छायं । तेहि चिय जयगरुणो रूवि तवतेयवंद्र व॥७५७॥ इय तियसेहि विरइए तिहुयणनाहस्स अह समोसरणे । पुव्वद्दारेण तओ तत्थ पविट्ठो जिणो भयवं ॥७५८॥
प्रतिबद्धकुन्दधवलं मनोहरविलसन्मौक्तिकावचूलम् । छत्रत्रयं च गुरोस्त्रिभुवननाथत्वसूचकम् ॥ ७५३॥ हेममयचित्रदण्डः पवनप्रनृत्यद्ध्वजपटसनाथः । गगनतलमनुलिखन् निमितः सिंहचक्रध्वजः ।।७५४॥ हंसकुलपाण्डुराणि गगने कृतानि चामराणि च । जलधरस्तनितस्वरा मनोहरसुरदुन्दुभयश्च ।।७५५।। तरुणरविमण्डलनिभं न्यस्तं वरकनकपुण्डरीके । पुरतश्च धर्मचक्र निर्मितं व्यन्तरसुरैः ।।७५६॥ भामण्डलं च विकटं निर्मितं दीप्तदिनकरच्छायम् । तैरेव जगद्गुरुणो रूपि तप:तेजोवन्द्रमिव ॥७५७।। इति त्रिदर्शविरचिते त्रिभवननाथस्याथ समवसरणे। पूर्वद्वारेण ततस्तत्र प्रविष्टो जिनो भगवान् ।।७५८ ।।
से खापत पैर रखने का पीढ़ा (पादपीठ) बनाया। खिले हुए कुन्द के फूल के समान सफेद, मनोहर, शोभायमान मोतियों के गुच्छों से युक्त तीन छत्र भगवान् के तीनों भुवनों के स्वामीपने के मुचक थे। स्वर्ण के भद्भुत दण्ड वाला, वायु के द्वारा नचाये हुए ध्वजपट से युक्त आकाशतल को छूता हुआ सिंह और चक्र से युक्त ध्वज निर्मित किया। हंसों के समह के समान श्वेतवर्ण चंवर आकाश में लटकाये और मेघ की वनि के समान स्वरवाने मनोहर नगाड़े निर्मित किये । तरुण सूर्यमण्डल के सदश श्रेष्ठ स्वर्णकमल पर सामने व्यन्तरदेवों ने धर्मचक की रचना की । उन्हीं व्यन्तरदेवों ने जगद्गुरु भगवान् की तपस्या के तेजसमूह के समान सूर्य की आभा से देदीप्यमान विकट भामण्डल बनाया। इस प्रकार देवों द्वारा रचित तीनों भुवनों के स्वामी के समवसरण में
२. उप्काल (दे.) सूचकम् ।
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