________________
अट्ठमो भवो ]
वाउकुमारेहि सयं चालियनंदणवणेण पवणेण । जोयणमेत्ते खेत्ते अवहरिओ रेणुतणनिवहो ।।७४७॥ मेहकुमारेहि तओ सुरहिजलं सोयलं पढें ति। उउदेवेहि य सहसा दसवण्णाइ कुसुमाई ॥७४८॥ पायारो रयणमओ निम्मविओ कप्पवासिदेवेहि। बोओ य कंचणमओ जोइसियसुरेहि सयराहं ॥७४६॥ तइजो कलहोयमओ निम्मविओ भवणवासिदेवेहि । वन्तरसुरेहि य कयं एक्केक्के तोरणाईयं ॥७५०॥ मज्झे असोयरुक्खो गंधायड्डियभमंतभमरउलो। कुसुमभरनिमियडालो निम्मविओ वंतरसुरेहिं ॥७५१॥ सीहासणं च तस्स य रयणमयमहो य पायपीढं तु। विविहमणिरयणखचियं तेहिं चिय भत्तिजुत्तेहिं ॥७५२॥
वायुकुमारैः स्वयं चालितनन्दनवनेन पवनेन । योजनमात्रे क्षत्रे अपहृतो रेणुतृणनिवहः ।।७४७॥ मेघकुमारैस्ततः सुरभिजलं शीतलं प्रवृष्टमिति । ऋतुदेवैश्च सहसा दशार्धवर्णानि कुसुमानि ।। ७४८।। प्राकारो रत्नमयो निमितः कल्पवासिदेवैः । द्वितीयश्च काञ्चनमयो ज्योतिष्कसुरैः शीघ्रम् ॥७४६।। तृतीयः कलधौतमयो निमितो भवनवासिदेवैः । व्यन्तरसुरैश्च कृतमेकैकस्मिन् तोरणादिकम् ॥७५०॥ मध्येऽशोकवृक्षो गन्धाकृष्टभ्रमभ्रमरकुलः । कुसुमभरन्यस्तशाखो निर्मितो व्यन्तरसुरैः ॥७५१।। सिंहासनं च तस्य च रत्नमयमधश्च पादपीठं तु । विविधमणिरत्नखचितं तैरेव भक्तियुक्तः ॥७५२॥
की हवा चलायी। योजन मात्र पृथ्वी की धूलि और तण-समूह हरण कर लिया । तदनन्तर मेघकुमार देवों ने सुमन्धित शीतल जल भोर पांच रंगों के ऋतु के फलों को यकायक बरसाया। कल्पवासी देवों ने रत्नमय प्राकार निर्मित किया । ज्योतिषी देवों ने शीघ्र ही दूसरे स्वर्णमय प्राकार की रचना की। भवनवासी देवों ने तीसरे रजतमय प्राकार की रचना की। व्यन्तर देवों ने एक-एक में तोरणादि की रचना की। मध्य में अशोकवृक्ष था, जिसको गन्ध से आकृष्ट होकर भौरों का समूह मँडरा रहा था। उसमें फूलों के समूह से युक्त शाखाओं की व्यन्तर देवों ने रचना की। उन्हीं भक्त देवों ने भगवान् का रत्नमय सिंहासन और नीचे अनेक प्रकार के मणिरत्नों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org